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धर्म का पाराधन
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तो भी निरन्तर धर्म करते रहना चाहिए। जैसे तेली की घानी से बँधा हुआ चैल चलता-चलता भी घासचारा चरता रहता है।
प्रायः लोग यह कहते हैं कि, बुढ़ापे मे 'गोविन्द-गुण गायेंगे' । पर, उस समय तो इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती है, शरीरबल घट जाता है, दाँत गिर जाते हैं, कानों में कम सुनाई देने लगता है, आँखो से कम दिखाई देने लगता है, कमर झुक जाती है, लकड़ी के सहारे के बिना चला नहीं जाता, खाना बराबर हज्म नहीं होता, कफ आदि का उपद्रव बढ जाता है,
और भी दूसरे रोग आ घेरते हैं। उपरात अनेक प्रकार की चिन्ताएँ घेरे रहती हैं । ऐसी हालत में धर्म का आराधन कैसे हो ? आराधन तो दूरएकाग्रचित्त होकर धर्मश्रवण तक नहीं होता। बहुतो का हाल तो गोमतीडोसी (बुढिया) जैसा होता है।
गोमती-डोसी का दृष्टान्त
श्रीपुर-नामक एक नगर था। उसमें बसु-नामक एक सेठ रहता था । उसके गोमती-नामक स्त्री थी और धनपाल नामक पुत्र था। आयुष्य को डोरी टूटने पर बसु-सेठ मरण को प्राप्त हुए और घर का सारा भार गोमती-डोसी पर आ पड़ा। इस बुढिया की वाणी बड़ी कड़वी थी, इसलिए, पुत्रवधू के साथ रोज तकरार होती थी। इससे उकता कर एक चार धनपाल ने कहा-"माँनी, अब तो आपके धर्म करने के दिन है, इसलिए सब चिन्ता-फिक्र छोड़कर धर्मकथा सुनो। कल से हमारे यहाँ एक बहुत अच्छा पण्डित कथा बाँचने आयेगा।" और, उसने पण्डित का इन्तजाम कर दिया। __ दूसरे दिन पडितजी महाभारत की पोथी लेकर गोमती-डोसी के वर आये और एक ऊँचे आसन पर विराजमान हुए । गोमती सुनने बैठी । तब पडितजी ने बॉचना शुरू किया-"भीष्म उवाच-भीष्म बोले।" तब कथा सुनने बैठी गोमती का ध्यान खिड़की में खड़े हुए कुत्ते की तरफ