________________
आत्मतत्व-विचार शास्त्रकार कहते हैं :जहह सिहो य मिगं गिहाय,
मच्चू नरं नेह हु अंतकाले । त तस्स भाया न पिया व माया,
कालम्मि तस्स सहरा.भवन्ति ॥ --जैसे सिंह हिरनों की टोली मे घुसकर किसी हिरन को लेकर चल देता है, उसी तरह मृत्यु भी अन्तकाल मे कुटुम्बीजनों मे कूदकर उनमे से किसी जन को पकड़कर चल देती है । उस समय पत्नी, पिता या माता कोई भी उसके सहायक नहीं होते।
जो अनेक प्रकार की वासनाओं से घिरे रहकर मरण पाते हैं, उनकी गति कैसे सुधर सकती है ? उसके लिए तो शुरू से धर्म से दोस्ती करनी चाहिए और आत्मा को शुभ लेश्यावाला बनाना चाहिए।
आजकल युवको की स्थिति खोखली है। एक तो उनमें धर्म के सस्कार नहीं होते, दूसरी ओर भौतिकवाद का जबरदस्त आकर्षण होता है । इसलिए, वे अक्सर भौतिकवाद की ओर खिंच जाते हैं। वहाँ उन्हें क्या मिलता है-देह, वस्त्र, आभूषण, सुन्दर निवास-स्थान, बाग-बगीचा, गानतान, पर ये सब कुछ दिनों तक अच्छे लगते हैं । बाद में, वे आनन्द नहीं दे पाते । भौतिकवाद की बड़ी कमी यह है कि, वह चित्त को शाति दे सकने में असमर्थ है-हालॉकि शाति की ही हर मनुष्य को खास जरूरत है। इसलिए, जवानों को दूसरे झंझट छोडकर धाराधन मे मन लगाना चाहिए | कहा है कि
व्याकुलेनापि मनसा, धर्मः कार्यो निरन्तरम् ।
मेढीवद्धोपि हि भ्राम्यन् , घासनासं करोति गौ ॥ -~-मन अनेक प्रकार की आधि, व्याधि और उपाधि से व्याकुल हो