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धर्म के प्रकार
५६३ से ही चलती है । कारण कि, ग्राहक तो इसलिए भी ज्यादा आ सकते हैं कि, दुकान मौके की हो, अथवा प्रचार ज्यादा हो; अथवा छूटछाट ज्यादा हो और आसपास वैसी दुकान हो अथवा ग्राहको को सच्ची समझ न हो । इसलिए धर्म की श्रेठता का निर्णय उसकी सत्यता से करना चाहिए ।
कितने ही लोग कहते हैं-"विभिन्न धर्मों की बात सुनकर हमारी मति भ्रम में पड़ जाती है। अतः एक ही धर्म निर्धारित कर दिया जाये तो क्या हानि है ? फिर कोई धर्म मानने का--प्रश्न तो नहीं रह जायेगा।" परन्तु यह कथन जगत को वास्तविक समस्या समझे बिना कहा गया है। एक ही धर्म की कल्पना करनेवाले को यह समझना चाहिए कि, ससार के प्राणिमात्र एक समान ही वस्त्र क्यो नहीं पहनते ? एक सरीखा भोजन क्यो नहीं करते ? एक समान रीति-रिवाज का पालन क्यो नहीं करते ? यदि ये बातें शक्य हो जायें तो एक धर्म की बात भी शक्य हो जाये ! पर, आज तो स्थिति यह है कि, एक घर की चार नारियाँ भी एक समान वस्त्र नहीं पहनतीं । एक गुजराती वेशभूषा पसद करती है तो दूसरी दक्षिणी, तीसरी पजाबी और चौथी बगाली ! यदि घर में विवाह अथवा अन्य कोई प्रसग आ पड़े तो एक नारी दिन में दस-दस बार वस्त्र बदलती है और ऐसा करने मे उसे आनन्द आता है । इतनी वैविधा के रुचिवाले जगत में भला एक धर्म किस प्रकार सम्भव है ?
जिन विचारों के पीछे वास्तविकता न हो, उन्हें हम 'शेखचिल्ली का तर्क' कहते हैं। एक मियाँ तालाब के किनारे बड़ के पेड़ के नीचे बैठे थे। वे विचार करने लगे कि 'अगर तालाब का सारा पानी घी हो जाये
और बड़ के पत्ते रोटियाँ हो जाये तो बन्दा दबा-दबा कर खाये !' मगर तालाब का पानी घी कैसे बने ? और, बड़ के पत्ते रोटियाँ कैसे बनें ? अगर नहीं बन सकते तो 'बन्दा' दबा कर खा कैसे सकता है ?
कुछ लोग कहते हैं कि, 'सब धर्मों के बजाये एक धर्म भले ही न हो सके, पर हमें सभी धर्मों को मान देना चाहिए और उनसे अच्छी बातें
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