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आत्मतत्व-विचार कलह अव्मक्खाणं, पेसुन्तं रइ-अरइ-समाउत्तं । परपरिवायं माया-मोसं मिच्छत्त-सल्लं च ॥ वोसिरिसुइमाईमुक्ख-सग्ग-संसग्ग-विग्घभूनाई।
दुग्गह-निघणाई, अट्ठारस, पाव-ठाणाई॥ प्रवचनसारोद्धार के २३७-वे द्वार में भी अठारह पापस्थानों की गाथाएँ आती हैं और स्थानागसूत्र में भी उनके नाम बताये गये हैं। पंचमाग श्री भगवतीसूत्र में भी तत्सम्बन्धी प्रश्न आते हैं, जिनकी आगे चर्चा करेंगे । इस प्रकार अठारह पापस्थानों की प्ररूपणा बड़ी प्राचीन है, अथवा अनादिकालीन है ।
प्राणातिपात-अर्थात् प्राण का अतिपात करना, प्राण का नाश करना । किसी भी प्राणी के प्राण का नाश किया जाये तो उसे प्राणातिपात कहते है | मारण, घात, विराधना, आरम्भ-समारंभ, हिंसा ये उसके पर्यायवाची शब्द हैं। सब पापो में हिंसा बड़ा पाप है, इसलिए उसको पहला स्थान दिया गया है।
मृपावाद-अर्थात् मृषा बोलना ! मृषा यानी अप्रिय, अपथ्य और अतथ्य !! जो वचन प्रिय न हो, कर्कश हो, वह अप्रिय है । जो वचन पथ्य यानो हितकारी न हो, वह अपथ्य है । जिस वचन मे वास्तविकता न हो, वह अतथ्य है । व्यवहार में हम मृषावाद को 'झूट बोलना' कहते हैं । 'अलीक वचन' उसका पर्यायवाची शब्द है।
अदत्तादान-अर्थात् अदत्त का आदान । जो वस्तु उसके मालिक ने प्रसन्नता से न दी हो, वह अदत्त कहलाती है। उसका आदान करना यानी ग्रहण करना अदत्तादान है । व्यवहार मे उसे चोरी कहते हैं।
मैथुन-अर्थात् कामक्रीड़ा, अब्रह्मसेवन । मैथुन शब्द मिथुन से बना है। मिथुन का भाव मैथुन है । मिथुन माने स्त्री पुरुष का संसर्ग !
परिग्रह–अर्थात् मालिकी के भाव से वस्तु का स्वीकार । उसके धनधान्यादि नौ भेट प्रसिद्ध हैं।