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पाप-त्याग
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कर्म का भार सचमुच बड़ा भयंकर है ! जो उसे भाररूप समझेगा वही उसे हल्का करने की कोशिश करेगा। भार का कम होना ही कमाई है और भार का बढ़ना ही नुकसान है।
महानुभावो ! कर्म के बोझ के कारण ही आत्मा जन्म-जन्म मे मरता है और समय-समय में मरता है। हम विचार करना है कि, यह बोझा कम कैसे हो?
हर एक मुमुक्षु को प्रतिपल यह विचार करना चाहिए कि, मै इन पापस्थानकों का कितना सेवन करता हूँ और कितना त्याग किये हुए हूँ ?
साधु का पच्चक्खाण नौ प्रकार का है-मन, वचन, काय से पापकर्म करना नहीं, कराना नहीं और अनुमोदना नहीं । श्रावकों का पच्चक्खाण ६ कोटि का है-मन, वचन, काय से पापकर्म करना नहीं तथा करना नहीं । श्रावक को अनुमोदन की छूट है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि, वह इस छूट का मनमाना उपयोग करे। किसी ने पच्चीस शाक खाने की छूट रखी हो; इसका मतलब यह नहीं है कि, वह पच्चीस शाक रोज खाये । यह तो शाक खाने की अधिकतम मर्यादा है। ____एक आदमी ने चातुर्मास में बीमार साधुओं की दवा करने का नियम किया । वह रोज आकर पूछता । पर, उस चातुर्मास में कोई साधु बीमार नहीं पड़ा, इसलिए उसके द्वारा किसी की दवा न हो सकी । इससे वह पछतावा करने लगा कि, 'हाय ! हाय !! कोई साधु बीमार नहीं पड़ा और मेरे नियम का पालन न हो सका ' इसका नाम है अज्ञान-नियम अच्छा; पर भावना अज्ञानपूर्ण ! ____ हमारे यहाँ जयना यानी यत्ना शब्द प्रचार में है। उसका अर्थ यह है कि, छुट चाहे जितनी हो, पर उसका यथाशक्य कम ही उपयोग करना ।
प्रश्न--सामायिक में दो घड़ी भी नौ कोटि का पच्चक्खाणा क्यों नहीं?