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इकतालीसवाँ व्यारव्यान
सम्यक्त्व
[ १ ]
महानुभावो !
हमारे आज तक के व्याख्यानों से आप यह तो समझ ही गये होगे कि, धर्मपालन, धर्माराधन या धर्माचरण के लिए सम्यक्त्व अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । शास्त्रकार भगवन्त के वचन सुनाकर भी हम आपको यह बतला चुके हैं कि, 'सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन बिना सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, सम्यक ज्ञान विना सम्यक्चारित्र की प्राप्ति नहीं होती; सम्यकचारित्र बिना सकल कर्मों का नाश नहीं किया जा कर्मों का नाश किये बिना निर्वाण, मुक्ति, मोक्ष या नहीं हो सकती ।' अर्थात् सम्यक्त्व ही धर्माचरण की मूल भूमिका है ।
सकता और सकल
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परमपद की प्राप्ति
इस सम्यक्त्व को महिमा पर प्रकाश डालते हुए शास्त्रकार भगवन्तो ने बताया है कि—
सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नम्, सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् । सम्यक्त्ववंधोर्न परो हि बन्धुः,
सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभो ॥
- सम्यक्त्व से श्रेष्ठ कोई रत्न नहीं है, सम्यक्त्व से श्रेष्ठ कोई मित्र नहीं है, सम्यक्त्व से श्रेष्ठ कोई बन्धु नहीं है; सम्यक्त्व से श्रेष्ठ कोई लाभ नहीं है ।