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श्रात्मतत्व-विचार
से उस समय उसके घर में साधु को बहोरने लायक कुछ भी अन्नपान नहीं था। इधर-उधर देखा तो ताजा घी का भरा हुआ एक पात्र दिखायी पड़ा। उसने कहा-'भगवन् ! यह आपको कल्पेगा ?" साधुओ ने अपने आचार के अनुसार 'कल्पेगा' कहकर पात्र रख दिया। धन सार्थवाह ने रोमाचित होकर और प्रबल कृतार्थता और धन्यता की भावनापूर्वक मुनियों को घी बहोरा । फिर, उसने उन मुनियो को वन्दन किया। उन्होंने सर्वकल्याण के सिद्धमंत्र समान 'धर्मलाभ दिया और वे अपने आश्रयस्थान पर लौट आये । इस उल्लासपूर्ण दान के प्रभाव से धन सार्थवाह ने मोक्षवृक्ष के बीजरूप सम्यक्त्व को प्राप्त किया ।
रात को सार्थवाह फिर आचार्य के आश्रय पर गया और अत्यन्त भक्ति-भाव से वन्दन करके उनके चरणो के पास बैठ गया। उस समय आचार्य-श्री ने गंभीर वाणी से धर्मोपदेश देते हुए कहा:___"धर्म उत्कृष्ट मगल है, स्वर्ग और मोक्षदायक है तथा संसार-रूपी दुरूह वन को पार करने के लिए श्रेष्ठ मार्गदर्शक है।" ___"धर्म माता की तरह पोषण करता है, पिता की तरह रक्षण करता है; मित्र की तरह प्रसन्न करता है, बन्धु की तरह स्नेह रखता है, गुरु की तरह उजवल गुणों में आरूढ करता है और स्वामी की तरह उत्कृष्ट प्रतिष्ठा को प्राप्त कराता है।" ___ "धर्म सुख का महाहर्म्य है; शत्रु-रूप सकट में अभेद्य बख्तर है और जड़ता का नाश करनेवाला महारसायन है।"
"धर्म से जीव राजा, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती और इन्द्र बनता है तथा त्रिभुवन पूजित तीर्थकर-पद को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि, जगत् की तमाम ऋद्धि-सिद्धियाँ और सकल ऐश्वर्य धर्म के अधीन हैं।" ___"इस धर्म का अनुष्ठान दान, शील, तप और भाव की यथार्थ आराधना से होता है। जैसे महाराजेश्वर का निमत्रण मिलने पर माडलिक राजा उसके