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सम्यक्त्व
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धन-सार्थवाह की कथा नम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित-नामक नगर था । वहाँ धन नामक एक श्रीमंत सार्थवाह रहता था । औदार्य, गाभीर्य, धैर्य, आदि गुणों से उसका जीवन विभूपित था । जीवन का सच्चा भूषण सुवर्ण मणिमुक्ता नहीं, बल्कि सद्गुण है, यह बात हमें हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए।
एक बार धन सार्थवाह ने विचार किया-"गृहस्थ लोग धनोपार्जन से ही शोभा पाते हैं, इसलिए सम्पत्तिशाली होते हुए भी मुझे प्रमाद छोड़कर धनोपार्जन करना चाहिए । पुष्कल जलसमूह से परिपूर्ण होने पर भी क्या सागर नदियों से नलसंग्रह नहीं करता ? पुण्योदय से व्यापार लक्ष्मी को प्राप्त कराता है। मैं किराना लेकर वसंतपुर जाऊँ।'
यह निर्णय करके उसके नगर में उद्घोषणा करा दी-“हे नगरजनों ! धन-सार्थवाह वसन्तपुर जानेवाला है; इसलिए जिसे चलना हो चले । वह रास्ते में सबके रक्षण-पोषण का प्रबन्ध करेगा।" ____ यह उद्घोषणा सुनकर, बहुत-से लोग उसके साथ चलने को तैयार हो गये । उस समय क्षात, दात और निरारभी धर्मघोष-नामक शातिमूर्ति आचार्य उसके पास आये।
सार्थवाह ने खड़े होकर, दोनो हाथ जोड़कर उन्हें विनयपूर्वक वन्दन किया और आगमन का कारण पूछा । आचार्य ने कहा-"महानुभाव ! हम भी सपरिवार तुम्हारे साथ वसन्तपुर चलेंगे।" यह सुनकर धन-सार्थवाह ने कहा-"महाराज | आप बड़ी प्रसन्नता से चलिए । मैं आपकी सब सँभाल रलूँगा।" और, उसने तभी आदमियों को आचार्य-महाराज के और उनके परिवार के खानपान तैयार करने की आज्ञा दे दी । यह सुनकर आचार्य ने कहा-"महानुभाव ! साधुओं के लिए किया हुआ, कराया हुआ और सकल्प किया हुआ आहार उन्हें कल्पता नहीं है। कुंआ, बावड़ी, तालाब