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आत्मतत्व-विचार हे पार्श्वनाथ प्रभो ! आपका सम्यक्त्व-चिन्तामणिरत्न कल्पवृक्ष से भी बढकर है, कारण कि उसका लाभ होने पर जीव बिना बिघ्न अजरामर स्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करते हैं। ____ 'सम्यक्त्व के लाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं, ये वचन भी परम सत्य को प्रकट करनेवाले हैं।
शास्त्रकार भगवंतों ने सम्यक्त्व की महिमा प्रकट करते हुए यह भी कहा है किदानानि शीलानि तपांसि पूजा, सत्तीर्थयात्रा प्रवरादया च । सुश्रावकत्वं व्रतपालनं च, सम्यक्त्वमूलानि महाफलानि ।।
—विविध प्रकार के दान, विविध प्रकार का शील, विविध प्रकार के तप, प्रभुपूजा, महान् तीर्थों की यात्रा, उत्तम प्रकार की जीवदया, सुश्रावकपना और किसी भी प्रकार के व्रतका पालन सम्यक्त्वपूर्वक हो तो ही महाफल देनेवाला होता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि, चाहे जैसी धर्मक्रियाएँ करें, चाहे जैसे धार्मिक अनुष्ठान करें, पर उसके मूल में सम्यक्त्व होना आवश्यक है। अगर सम्यक्त्व न हो तो उन सब क्रियाओं का, उन सब अनुष्ठानों का जो फल मिलना चाहिए सो मिलता नहीं है। ___ सम्यक्त्व की स्पर्शना, सम्यक्त्व की प्राप्ति, सम्यक्त्व का लाभ, ये आत्मविकास के इतिहास में अत्यन्त महान् घटनाएँ हैं, कारण कि, तभी से अपरिमित भवभ्रमण को प्राप्त आत्मा अधिक-से-अधिक अर्धपुद्गल परावर्तनकाल में तो अवश्य मोक्ष जाता है और जघन्य की दृष्टि से तो अन्तमुहूर्त में भी वह सकल कर्म का नाश करके मोक्षगामी हो सकता है। __ तीर्थंकर भगवतों के भवों की गणना भी जब से उनका आत्मा सम्यक्त्व को स्पर्श करता है तभी से होती है। इस सम्यक्त्व की स्पर्शना कैसे संयोगों में किस तरह होती है; यह बात धन सार्थवाह की कथा द्वारा बतायेंगे।