________________
चालीसवाँ व्याख्यान
पाप-त्याग
महानुभावो! ___ अब तक के विवेचन से आप समझ गये होगे कि, 'आत्मा का गुण' ही धर्म है और वही मोक्षमार्ग है । आत्मा के बहुत से गुण है; पर मुख्यतः तीन हैं—सम्यक् दर्शन, सम्यकजान और सम्यकचारित्र ।
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र आत्मा के गुण नहीं है, बल्कि कर्मजन्य भाव है । ये कर्मजन्य भाव संसार को बढ़ानेवाले हैं, जन्ममरण करानेवाले हैं और आत्मा को चौरासी लाख योनियों में बारंबार परिभ्रमण करानेवाले है।
मिथ्यादर्शन अर्थात् मिथ्यात्व, विपरीत तत्त्व श्रद्धान्त, अथवा गलत मान्यता ! पूर्व व्याख्यानों में इनका बहुत विवेचन हो चुका है, इसलिए यहाँ उनका विस्तार नहीं करते।
मिथ्याज्ञान यानी मिथ्यात्वयुक्त ज्ञान, अज्ञान मति-अज्ञान, श्रुतअजान और विभगज्ञान-थे तीन अज्ञान हैं। इनका भी पहले विवेचन हो चुका है।
मिथ्याचारित्र अर्थात् पापाचरण, पापकर्मों का सेवन, पापस्थानकों का सेवन ! जब तक पापस्थानकों का सेवन नहीं छूटता; तब तक सम्यक्चारित्र प्रकट नहीं होता, और जब तक सम्यक्चारित्र प्रकट न हो, तब तक आत्मा निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता । जिनागमों में कहा है कि
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हूंति चरणगुणा। अगुणिस्स नथिमोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥