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पाप-त्याग
-जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ, उसे सम्यक्ज्ञान प्राप्त नहीं होता, जिसे सम्यकज्ञान प्राप्त नहीं होता, उसके सम्यकचारित्र के गुण प्रकट नहीं होते; जिसके सम्यकचारित्र के गुण नहीं प्रकट होते, वह कर्मबन्धन से मुक्त नहीं होता; और जो कर्मवन्धन से मुक्त नहीं होता, उसे निर्वाण प्राप्त नहीं होता। ___ आज पापस्थानकों के त्याग पर, पापत्याग पर कुछ विवेचन करना है । पाप किसे कहते हैं ? पाप की व्याख्या क्या है ? इसका उत्तर श्री रत्नशेखर सूरि महाराज ने आवकप्रतिक्रमणसूत्र की अर्थदीपिका-टीका में इस प्रकार दिया है : ___ 'पायति-शोषयति पुण्यं पांशयति वा गुण्डयति वा जीववस्त्रमिति पापम् ।'
-जो पुण्य का शोपण करे अथवा जीव-रूपी वस्त्र को मलिन करे सो पाप है।
पाप के जो कर्म हैं, स्थान हैं, वे पापस्थानक हैं। ऐसे पापस्थानक अठारह हैं-(१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६ ) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) अभ्याख्यान, (१३) कलह, (१४) पैशुन्य, (१५) रतिअरति, (१६ ) परपरिवाद, (१७) मायामृषावाद और (१८) मिथ्यात्वशल्य ।
प्रश्न-प्रतिक्रमणसूत्र में अठारह पापस्थानकों का पाठ आता है, वह गुजराती भाषा में है, तो क्या अठारह पापस्थानकों की गणना हमारे प्राचीन सूत्रों मे थी क्या ?
उत्तर-पच प्रतिक्रमण में सथारापोरिसी का पाठ आता है। उसमें नीचे की गाथाएँ हैं
पाणाइवायमलिश्र, चोदिक्क मेहुणं दविण-मुच्छं। कोई माणं मायं, लोहं पिजं तहा दोसं ॥