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आत्मतत्व विचार
रहे और स्वर्गादि उच्चगति में स्थापित करे सो धर्म है; यह व्याख्या लक्षण से हुई, और पचपरमेष्ठी को किया जानेवाला नमस्कार धर्म है, यह व्याख्या स्वरूप से हुई । पचपरमेष्ठी को किया जानेवाला नमस्कार प्राणियो को दुर्गति मे गिरने से रोकता है और स्वर्गादिक उच्च गतियों में स्थापित करता है। शास्त्र में स्पष्ट कहा है
जे केइ गया मुक्खं, गच्छंति य केऽवि कम्ममलमुक्का। ते सव्वेच्चियजाणसु जिणनवकारप्पभावेण ॥
-नवकारफलप्रकरण, गाथा १७ —जो कोई मोक्ष गये और जो कोई कर्ममल से रहित होकर मोक्ष जाते हैं, वह सब भी श्री जिननवकार के ही प्रभाव से है, ऐसा जानो।
कोई अगर नमस्कार के प्रभाव से उसी भव मे किसी कारणवश मोक्ष न पाये, तो उच्च कोटि के देव की गति अवश्य पाता है। इसके अनेक दृष्टान्त जिन-शासन मे प्रसिद्ध हैं । काष्ठ मे जलते हुए नाग ने नवकारमत्र सुना और वह धरणेन्द्र हुआ।
अब प्रस्तुत विषय पर आवें। धर्म के अनेक प्रकार हो सकते हैं। धर्म एक प्रकार का हो सकता है, दो प्रकार का हो सकता है। तीन, चार, पाँच और छ प्रकारों के हो सकते है । आत्मशुद्धि धर्म का एक प्रकार है।
आत्मशुद्धि से तात्पर्य है-विभाव दशा दूर करना । ज्यो-ज्यो विभावदशा दूर होती जाती है, त्यों-त्यों आत्मा शुद्ध होती जाती है और अपने मूल स्वरूप में आती जाती है।
वत्थुसहावो धम्मो -वस्तु के स्वभाव को भी धर्म कहते हैं। जैसे मिर्च का धर्म उसका तीखापन, गुड़ का मिठापन और नीम का कड़वापन है, उसी प्रकार