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धर्म के प्रकार लिये जाते हैं, पाँच को जीतने से दस जीत लिये जाते हैं और दस को जीतने से सब जीत लिये जाते है। इस प्रकार मै सर्व शत्रुओ को जीतता हूँ।"
प्रश्न मार्मिक था, इसलिए उत्तर भी मार्मिक दिया गया था। इस वस्तु को विशेष स्पष्ट करने के लिए श्रमण केशीकुमार ने पूछा--- "हे गौतम । आप शत्रु किसे गिनते है ?"
उत्तर में श्री गौतम स्वामी ने कहा-“हे मुनिवर | न जीता हुआ 'आत्मा ( अविजित भावमन) एक शत्रु है। न नीती हुई कपाएँ और इन्द्रियाँ दूसरी शत्रु हैं । उन्हें जीतकर यथा न्याय यानी जिनेश्वरों के बताये हुए मार्गानुसार विचरता हूँ।
कहने का भावार्थ यह था कि, एक मन को जीतने से चार कषायो को जीता जा सकता है, यानी कुल पाँच शत्रुओं को जीता जा सकता है। और, इन पॉच को नीता कि पाँचो इन्द्रियाँ वश मे आ जाती है। इस तरह कुल दस शत्रु जीते गये कि शेष सब शत्रु पराजित हुए ।
इस समय श्रमण केशीकुमार ने एक और भी मार्मिक प्रश्न किया"हे गौतम ! यह महासाहसिक, भयंकर और दुष्ट घोड़ा तीव्र गति से दौड़ रहा है । आप उस पर बैठे हुए उन्मार्ग में क्यों नहीं जाते ?"
श्री गौतम ने कहा--'हे महामुनि । उस सरपट दौड़ते हुए घोड़े को मैं श्रुत (शास्त्र )-रूपी लगाम से चिलकुल काबू में रखता हूँ, इसलिए वह उन्मार्ग में नहीं जा पाता।"
श्रमण केशीकुमार ने पूछा-'वह घोड़ा कौन-सा है ?"
१. एगप्पे अनिए सत्त , कसाया इन्द्रियाणिय । ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी ॥
-श्री उत्तराध्ययन सूत्र ।
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मन सूत्र।