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धर्म का आराधन
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८० वर्ष की उम्र जिसे मिली, उसे हम लम्बी उम्रवाला कहते हैं । अधिकाश तो ५० से ६० के बीच ही सिधार जाते हैं । परम पूज्य आचार्य विजयसिद्धि सूरि जी का १०४ की उम्र में स्वर्गवास हुआ, उसे हम उपमारहित मानते हैं ।
गोगाय नित्य पाव इंच ऊपर चढ़ती है तो ८ वर्षों मे ६० फुट ऊपर चढ जाती है, पर आप तो ८० वर्ष की उम्र में भी उस शिखर तक नहीं पहुँच पाते । तो, फिर आप ही कहें कि आपकी गति क्या है ? कितने तो इस समय तक है, या मात्र चढे रहते है । इसका गणित करें तो आपको अपनी गति का हिसाब समझ में आ जाये ! यदि ८० वर्ष में पूरा स्तम्भ चढ़ जायें तो आपकी गति इच होगी । और, अगर चौथाई मात्र चढ पाये तो गति ६० इच होगी । केवल छठमाश चढ पाये तो गति ४० इञ्च की होगी । और, यदि है मात्र चढ पाये तो गति उ० इञ्च मात्र होगी । इतनी मदगति ! पर, इस गति से भी चढा नहीं जाता ।
साधु-सतों के समागम में आकर, उपदेश सुनकर, स्वाध्याय करके उत्साह में आकर कुछ धर्म करना शुरू करते हैं कि प्रमाद, आलस्य, उपेक्षा और व्यवहार - जंजाल आ धमकता है और धर्म कर्म एक तरफ धरा रह जाता है । यह दो इच चढकर दो इञ्च नीचे उतरना नहीं तो क्या है ?
जीवन का योग
जैसे दिवाली पर आप अपने नफा-नुकसान का हिसाब लगाते हैं, वैसे ही आप अपने साठ सत्तर या अस्सी वर्ष की उम्र का हिसाब लगाकर क्यों नहीं देखते कि, क्या पाया और क्या खोया ?
आप खाने-पीने मे, नहाने धोने में, घूमने-फिरने में, बैठे रहने मे, सोते रहने मे, भोग-विलास में, गप-शप में, निन्दा-स्तुति मे, खेल कूद में, नाटक
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