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धर्म का श्राराधन
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अजीव आदि तत्त्वों और उनकी सूक्ष्म विचारणा भर शुद्धा थी; पर बाद में दाह, मिथ्याग्रह या मिथ्यात्व का उदय होने पर उसकी श्रद्धा चली गयी, वह व्यापन्नदर्शनी है। उनका संग भयंकर परिणाम लानेवाला होने के कारण त्याज्य माना गया है । अन्यत्र भी कहा गया है कि
कुसंगतेः कुबुद्धिः स्यात्, कुबुद्धेः कुप्रवर्तनम् । कुप्रवृत्तेर्भयजन्तु र्भाजनं दुःख सन्ततेः ॥
- कुसगति से कुबुद्धि पैदा होती है, कुबुद्धि से कुप्रवर्तन होता है और कुप्रवर्तन से प्राणी दुःख परम्परा का भाजना बनता है । कुदृष्टि अर्थात् मिध्यादृष्टि !
सम्यक्त्व का रक्षण करने के लिए, सम्यक्त्व को निर्मल बनाने के लिए उसके ६६ बोल ठीक तरह समझ लेना चाहिएँ । उनका विवेचन हम इसके बाद एक स्वतंत्र व्याख्यान में करेंगे ।
'जिनवयणे अणुरत्ता' इस गाथा की चार वस्तुओं में से दूसरी वस्तु जिन वचन मे कहे धर्म का हार्दिक उल्लासपूर्वक अनुष्ठान है । जिन वचन को सत्य मानें, उसमें बतायी हुई क्रियाओ को अच्छी कहें, पर उनका अनुष्ठान न करें, तो कर्म का नाश कैसे होगा ? कोई आदमी यह ' जानता हो कि, अमुक दवा से मेरा रोग मिट जायेगा, पर वह उस दवा को प्राप्त न करे या उपभोग न करे, तो उसका रोग कैसे मिट जायेगा ? इसलिए श्रद्धा और ज्ञान के साथ चारित्र का अनुष्ठान आवश्यक है !
कहते हैं कि क्रिया मात्र से मुक्ति मिल वाद हैं । एकान्वाद अर्थात् मिथ्यात्व ।
कुछ लोग कहते हैं कि, ज्ञान मात्र से मुक्ति मिल जाती है और कुछ जाती है; पर ये दोनो एकान्तअनेकान्तवाद तो कहता है कि,
ज्ञान और क्रिया दोनों हों तभी मुक्ति मिल सकती है। इस विषय में जैनमहर्षियों ने अंध- पगु न्याय कहा है, उसे लक्ष्य में रखना चाहिए ।