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धर्म का अाराधन
५८५ आदि गन्दो से शुरू होनेवाली गाथा के अर्थ में कहा था--"जो आत्माएँ जिन-वचन में अनुरक्त है, श्रद्धावान है; जिनवाणी में प्ररूपित अनुष्ठानों को हार्दिक उल्लासपूर्वक करती है, जो मलरहित हैं तथा संक्लेषरहित प्परिणामवाली है। वे परिमित संसारी बनती है।
संसार घटानेवाली चार वस्तुएँ ससार घटाने के लिए, अल्पसंसारी होने के लिए चार वस्तुओं की आवश्यकता है । पहली वस्तु जिन-वचन में अनुरक्तता, श्रद्धा है। 'जो जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है, वह सत्य है। उसका अनुसरण करने में ही मेरा कल्याण है, मेरी आत्मा का उद्धार है, ऐसी दृढ मान्यता से ही उनके बताये हुए मार्ग पर चला जा सकता है। हमने पूर्व व्याख्यानों में बताया है कि दान, शील, तप, पूजा, तीर्थयात्रा, दया, व्रतपालन आदि सम्यक्त्वपूर्वक हो तभी सफल हो सकते है । मजबूत नींव के बिना इमारत नहीं टिक सकती । परन्तु, जिन-वचन में श्रद्धा कैसे प्रकट हो ? कुछ आत्माओं
में वह नैसर्गिक रूप से प्रकट होती है; परन्तु उनकी सख्या बहुत कम है। • शेष मे तो वह अधिगम यानी गुरु के समागम-उपदेश से ही प्राप्त होती
है। आप गुरुमुख से धार्मिक व्याख्यान सुनें, तो जिन-वचन में श्रद्धा उत्पन्न होती जायेगी और वज्रलेप के समान दृढ़ हो जायगी। फिर, आपसे कोई चाहे जैस सवाल पूछे तो आप विचलित न होंगे।
कुछ लोग देव-गुरु की भक्ति करनेवाले से पूछते हैं-"धर्म का अर्थ क्या है ?" अगर वह आदमी समुचित उत्तर न दे सके, तो वह उसे दबाकर वे कहते हैं कि--''लो, तुम तो धर्म का अर्थ भी नहीं जानते, और धर्मक्रिया करते हो । ऐसी ज्ञानशून्य क्रिया से क्या लाभ ?' यह सुनकर सीधासादा आदमी उलझन में पड़ जाता है और जो स्वल्प धर्मक्रिया करता हो, उसे भी छोड़ देता है । परन्तु, आप उलट कर पूछ सकते हैं-"समझकर क्रिया करने का क्या मतलब ? क्या शब्द का अर्थ जान लेने से ही क्रिया