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आत्मतत्व-विचार
मानमय हो जाती है ? प्रतिक्रमणसूत्र का अर्थ नानकर क्रिया करें तो क्या वह क्रिया ज्ञानपूर्ण हो जायगी?" यहाँ विपक्षी ढीला पड़ जायेगा; क्योंकि वह पूर्णज्ञानी, केवलजानी, नहीं है। उसकी समझ भी अधूरी है। वह भी अपनी स्वल्प समझ के अनुसार ही क्रिया करता होता है।
अगर आप धार्मिक वातावरण में रहें; धार्मिक पुस्तकों का वाचन करते रहें और सद्गुरु का सम्पर्क प्राप्त करते रहें, तो अवश्य समझ जायेंगे कि, धर्म आत्मा के कल्याण के लिए है, कर्म को तोड़ने के लिए है और मुक्ति देने के लिए है। यह समझ ही सच्ची समझ है। इसलिए, इतना समझकर धर्म-क्रिया करो तो वह ज्ञानमय क्रिया कहलायेगी ।
जिन्हें धर्म पर श्रद्धा नहीं है, जो भौतिकवाद में रेंगे हुए हैं और लगभग नास्तिक हैं, वे धार्मिक क्रियाओं का मजाक उड़ाने के लिए तरहतरह की कुयुक्त्यिा ,ल्ड़ाते हैं और बात को ऐसी सफाई से रखते है कि, भले व्यक्ति भी विचार में पड़ जायें। परन्तु, आप ऐसे लोगो की बात न सुनें, सुनें भी तो उस पर विचार न करें; विचार भी करें तो उस पर किसी प्रकार से विश्वास न लायें।
शास्त्राकारों ने श्रद्धा के चार अंग बताये हैं; उनमें व्यापन्निदर्शनी और कुदृष्टित्याग पर विशेष भार दिया है। जैसा कि
परमत्थसंथवो खलु, सुमुणियपरमत्थजइजणसेवा । वावन्नकुदिट्ठाण य, वजणमिह चउहसदहणं ॥ ----(१) परमार्थ-सस्तव, (२) परमार्थ जाननेवाले मुनियों की सेवा (३) व्यापन्नदर्शनी और (४) कुदृष्टि का त्याग, ये 'श्रद्धा के चार अग हैं।
परमार्थ-सस्तव अर्थात् तत्व की विचारणा । परमार्थ को जाननेवाले - मुनियो की सेवा यानी गीतार्थ की सेवा | व्यापन्न-दर्शनी अर्थात् जिनका दर्शन व्यापन्न, नष्ट हो गया है ! तात्पर्य यह है कि कभी जिसकी जीव,