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धर्म का आराधन
५८६ अनुपम फल देनेवाला अनुष्ठान भी विपतुल्य बन जाता है। जो अनुष्ठान लब्धि, कीर्ति, सासारिक भोग आदि प्राप्त करने की इच्छा से किये जाते हैं, वे भी विषानुष्ठान है । ऐसे अनुष्ठानों को विप की तरह त्याग कर देना चाहिए।
जो अनुष्ठान गरतुल्य है, वह गरानुष्ठान है। इस लोक के भोगो के प्रति निःस्पृहता, परन्तु परलोक के दिव्य भोगो को भोगने की अभिलापापूर्वक जो अनुष्ठान किये जाते हैं, वे गरानुष्ठान हैं। विषानुष्ठान से यह कुछ अच्छा है, फिर भी हेय तो है ही । इस लोक की भोगेच्छा छोड़ दी; पर परलोक के भोगों की इच्छा रखी, तो भोगेच्छा तो कायम रही ही। मूल बात यह है कि, इहलोक या परलोक के भोगो की इच्छा रखकर धार्मिक अनुष्ठान करना योग्य नहीं है।
जो अनुष्ठान अन् यानी न करने के समान है उसे अननुष्ठान कहते है । जहाँ इस बात का ही ख्याल न हो कि अनुष्ठान किसलिए किया जा रहा है, वह अननुष्ठान है। यह अनुष्ठान धर्म-मुग्ध जीवो को किंचित उपकारक होता है; इसलिए इसे कथाचित् उपादेय माना गया है।
जो अनुष्ठान तद् हेतुवाला हो वह तद्+हेतु+अनुष्ठानतद्धत्वनुष्ठान है। तद् यानी वह हेतु, मोक्ष का हेतु । तात्पर्य यह कि, जो अनुष्ठान मोक्ष, परमपद या निर्वाण प्राप्त करने के हेतु से शुभ भावपूर्वक किया जाये उसे तत्विनुष्ठान समझना चाहिए । इस अनुष्ठान की उपादेयता स्पष्ट है ।
जो अनुष्ठान अमृततुल्य हो, वह अमृतानुष्ठान है। जो अनुष्ठान शुद्ध श्रद्धापूर्वक परम सवेग से भावित मन द्वारा केवल निर्जरा के लिए किया जाये वह अमृतानुष्ठान है। यह अनुष्ठान सर्वश्रेष्ठ है। " ___अनुष्ठानों के उपर्युक्त प्रकारों से यह स्पष्ट होता है कि क्रिया भले ही एक ही प्रकार की हो, पर हेतु के अनुसार वह उत्तम, मध्यम या जघन्य हो जाती है । क्रिया का हेतु ऊँचा होना चाहिए । जो क्रिया