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धर्म का आराधन
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बोली-"बहन ! एक बधाई का समाचार लायी हूँ।" सुरगी ने पूछा-"क्या ?"
फुरंगी ने कहा- "स्वामिनाथ कल बारह बजे घर आनेवाले हैं।"
सुरंगी बोली-"पर, वह तो मुझसे बोलते तक नहीं । मैं उनका कैसे . स्वागत करूँ"
फुरगी ने कहा-"तुम इसकी चिन्ता मत करो । मैं समझा दूँगी और वह भोजन तुम्हारे ही घर करेंगे। आप कल भोजन तैयार रखियेगा!"
सुरगी बड़ी प्रसन्न हुई। दूसरे दिन प्रातः उठकर स्नानादि से निवृत्त हो भांति-भाँति के भोजन उसने बनाये। और, फिर पति के आगमन का राह देखने लगी।
ठीक बारह बजे सुभट घर आया । पर, उस समय उसे अपने घर में कुंडी बंद मिली । सोचने लगा मैने सदेश भेज दिया था। सोचा था, फुरगी स्वागत के लिए द्वार पर खड़ी मिलेगी3; पर यहाँ तो कुंडी चढी है। उसने आवाज लगायी--"प्रिये ! मैं आ गया हूँ। कुडी खोलो।" पर, अदर से कुछ भी उत्तर नहीं मिला। सुभट ने अनेक मधुर वचन कहे, तो फुरंगी ने दरवाजा खोला।
सुभट फुरगी को मनाने लगा-'प्रिये ! मेरा ऐसा क्या अपराध है कि, तुम स्नेहपूर्वक बोल नहीं रही हो।'
' उस समय फुरंगी झनककर बोली-"तुम्हारे-जैसे ढोंगी व्यक्ति इस नगत में मिलना कठिन है ? स्वयं तो सुरगी के यहाँ कहला दिया कि, खाने तुम्हारे घर आऊँगा" और इतने में सुरगी का भेजा हुआ सोनपाल वहाँ आ पहुंचा और बोला-"पिताजी भोजन तैयार है। घर चलें।"
सुभट को समझ में नहीं आ रहा था कि, यह सब बात क्या है ? वह फुरंगी का मुख देखता रहा। फुरगी तिरस्कारपूर्वक बोली---"यह ढोंग