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आत्मतत्व-विचार रहने दो। तुम अपनी चहेती सुरंगी के घर जाओ। वह तुम्हें मन चाहा भोजन खिलायेगी।"
फुरंगी के इन कठोर वचनों से झल्लाकर अंततोगत्वा सुमट सुरंगी के घर गया । सुरगी उसके स्वागत में खड़ी रही। उसने पति का इच्छित रूप से स्वागत किया-गरम पानी से उन्हें स्नान कराया और पीढ़े पर भोजन के लिए बैठा दिया । नाना प्रकार के भोजन उसने सुभट के मम्मुख परस कर रख दिये; पर सुमट ने हाथ भी नहीं बढ़ाया ।
सुरगी ने पूछा- "हे स्वामी । आप भोजन क्यों नहीं करते ? क्या किसी चीज की कमी रह गयी है ?"
सुभट ने कहा- "इसमें एक वस्तु की कमी है। यदि फुरगी के हाथ की बनायी सब्जी भी होती तो भोजन अमृत-जैसा लगता।"
सुरंगी ने कहा-"पर, नाथ ! चखे बिना यह कैसे पता चला कि, यह फुरगी के हाथ-सी स्वादिष्ट नहीं है ?"
सुभट ने कहा-"यह तो मैने सोच-समझ कर कहा है। इसमें चखने की आवश्यकता ही नहीं है।"
सुरंगी समझ गयी कि, पति मे सौत के प्रति पक्षपात आ गया है अतः कितनी भी दलील करूँ ये माननेवाले नहीं हैं। अतः वह उठी और फुरगी के घर गयी और बोली-"बहन ! स्वामी का मन तो तुम मैं बसता है। अतः, उन्हें मेरे हाथ का पक्कान्न अथवा शाक भला नहीं लगता। अपने हाथ का बनाया थोड़ा शाक दो तो फिर उनका हाथ उठे।"
फुरगी ने देखा कि, इतने तिरस्कार के बावजूद सुभट का मन उस पर लगा है। इससे स्पष्ट है कि, वह मुझे यन्तस् से प्रेम करते हैं। अतः वह वोली-"थोड़ी देर बैठ जाओ । गरम-गरम शाक तैयार करके देती