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धर्म का आराधन
५७७ हैं। और, इन दो में भी कामिनी का आकर्षण बढकर है। इसीलिए, कवि ने कहा है
नारी मदन तलावड़ी, वुड्यो सब संसार ।
काढन हारा कोउ नही, कहा करूँ पुकार ।। फुरगी का चमड़ा तो उज्ज्वल था, पर उसका हृदय काला था । उसमे ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान आदि दोष भरे थे। नये नये पुरुषों को देख कर उनसे क्रोड़ा करने को वह इच्छा करती, पर सुरगी उसकी छाती पर बैठी थी, इससे उसकी कामना पूरी न हो पाती । एक तो सौत और दूसरे पीछे यह कारण-अतः सुरगी पर उसकी ईर्ष्या नित्यप्रति बढ़ती जाती। वह सुभट का कान भरने लगी और नाना प्रकार के सच्चे झूठे आरोप उस पर करने लगी।
फुरगी की कमनीय काया के वश पड़ा सुभट तो उसी की आँख देखता।
एक बार युद्ध का डंका बजा और सुभट को युद्ध पर जाना पड़ा। उस समय फुरंगी रंधे गले से कहने लगी-"नाथ ! आपके बिना तो मै एक दिन भी नहीं रह सकती। _ "मेरी स्थिति तो आज जल बिना मछली-सी हो रही है। मेरी इच्छा है कि, आप मुझे भी युद्ध में ले चलें।" __ समझाते हुए सुभट ने कहा-"लड़ाई बड़ी भयकर चीज है। उसमें मला नारी का क्या काम ? और, राजा की कड़ी आज्ञा है कि, कोई युद्ध म पत्नी को साथ न ले जाये। अतः प्रिये । यहीं खा-पीकर आनन्द मे रहो | अपने घर में किसी वस्तु की कमी नहीं है।" . फुरगी ने उत्तर दिया-"आपकी आशा मुझे शिरोधार्य है । इस घर म आपके बिना मेरा पल-पल भारी है। और, आप यह जानते हैं कि, अपना पड़ोसी कितना नटखट है।"