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धर्म का अाराधन
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लुब्धक ने जाल फैलाया। वह भी निष्फल गया । पर, तीसरी बार भी वैसा ही रहा । ___अब तुंगभद्र को परीशान करने के लिए लुब्धक नये उपाय सोचने लगा। पर, पुण्यात्मा को कष्ट देना कुछ सरल काम नहीं है । स्पष्ट कहें तो कहना होगा कि, पुण्यात्मा को कष्ट देना बडा कठिन काम हैलगभग अशक्य ही है। चाहे कितना ही कोई प्रयास करे पर निष्फल ही रहता है।
वह तुंगभद्र का अनिष्ट चाहने से वह बीमार पड़ गया और बीमारी दिनों-दिन बढ़ने लगी। पास में पैसे की कुछ कमी थी नहीं, अच्छे-सेअच्छे चिकित्सकों द्वारा उपचार प्रारम्भ हुआ। पर, उनका कुछ नहीं चला । अपना मरण-समय निकट जान कर उसके मन में बड़ा उथल पुथल हुआ। जीवन में यदि धर्म की भली प्रकार आराधना किया होती तो इस समय शान्ति होती । पर, लुब्धक ने तो कभी धर्म की ओर आँख उठा कर देखा भी नहीं था।
लुब्धक को इतना परीशान देखकर उसके बच्चों ने पूछा-"पिता 'जी! आप इतने परीगान क्यों हैं ? यदि आपकी कोई इच्छा अधूरी हो तो बताइये । हम उसे पूरी करेंगे। आप कहें तो गाय का शृगार करके दान कर दें, अथवा ब्राह्मणों को शैया का दान करें, या आपको रुपये से तौलकर उस रुपये को पुण्यकार्य में व्यय करें, जिससे आपकी आत्मा को शान्ति मिले।"
लुब्धक बोला-"मेरे लिए इस प्रकार दान-पुण्य की आवश्यकता नहीं है । तुम लोग इतना जान लो कि, मैंने कितनों की ही मालमात्कयत जप्त करा डाली. पर एक तुंगभद्र ही उसमें न फंस सका। उसे दण्ड मिले, ऐसा कोई उपाय करो।"
पुत्रों ने कहा-"पिताजी । इस प्रकार की बात न करें । अभी तो आप प्रभु के नाम का स्मरण करें और दान-पुण्य जो बन पड़े करें ।