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धर्म का पाराधन
५६३ अगर, धर्म को आप कल्याणकारी मित्र मानते हो तो अपने वालको को बचपन से ही उसका परिचय और मैत्री कराइये और यथाशक्ति आराधन कराइये। धर्म-प्रिय, धर्म-सस्कारी कुटुम्ब में जन्मा हुआ बालक अगर धर्म न पाले तो मानो वह भरे सरोवर म प्यासा रहा । इसमें जीवन की सार्थकता क्या है ? ___ महानुभावो ! काल कब आयेगा और किस तरह आयेगा यह हम नहीं जानते । ऐसे संयोगों में धर्मपालन को बड़ी उम्र पाने तक स्थगित रखने को बुद्धिमानी कैसे माना जा सकता है ? ____अगर, बालको के प्रति आप सच्चा लेह रखते हैं तो उन्हें सिर्फ नहलाने-धुलाने, खिलाने पिलाने, पहनाने-उढाने में ही सन्तोष न मानें । उन्हें कुछ धर्म करना भी सिखायें ताकि उनका भविष्य सुधरे और उनका आपके यहाँ जन्म लेना सार्थक हो । ___ यौवन में आपका अधिकाश समय विषयासक्त रहने मे बीतता है और आप मुख्य साधन-रूप द्रव्य की प्राप्ति में व्यस्त रहते है । व्यवहार की बातों के सामने आपको धर्म से मैत्री करने का अवसर ही नहीं रहता । उस समय आप सोचते है-"अभी तो मौज-शौक कर -वृद्धावस्था में धर्म-चिन्तन करूँगा।” परन्तु, आप वृद्धा होंगे, इसे जानता कौन है ? आप अपने सगे-सम्बधी, हित-मित्र से पूछे कि, उनमें कितने ही जवानी में ही चलते चने । रात को स्वस्थ व्यक्ति सोता है, सुबह सोकर नहीं उठता । लोग पूछते हैं कि, क्या हुआ ? तो उत्तर मिलता है-'हार्टफेल कर गया । मौज-शौक में अरमान ही अधूरा रह गया !" उस समय भला आत्मा की क्या दशा होती होगी?
दूसरों की ही यह दशा होगी, मेरी न होगी, यह मानने का कोई कारण नहीं है । अतः धर्म-चिन्तन स्थगित रखने का कोई अर्थ नहीं है । काल का डका अहर्निश बन रहा है फिर भी मनुष्य समझता नहीं !