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आत्मतत्व-विचार पाप से दुःख और पुण्य से सुख यह सिद्धान्त सर्व महापुरुषों को मान्य है कि, पाप से दुःख और पुण्य से सुख होता है। इसमें कभी कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसलिए, जो पाप करके सुखी होना चाहता है, वह अपने गले में पत्थर बाँधकर तैरना चाहता है। अगर आदमी के मन में यह ख्याल बना रहे कि, 'मैं जो पाप करता हूँ, उसका फल मुझे अवश्य भोगना पडेगा', तो उसे पाप करने का मन ही न हो। यह होते हुए अगर वह लाचारी से या दुःखते दिल से पाप कर भी बैठे, तो उसे कर्मबन्ध अत्यन्त अल्म होगा ।
विरति के दो प्रकार विरति दो प्रकार की है-सर्वविरति और देगविरति । जिसमें पाप का प्रत्याख्यान पूर्णरूप से हो, वह सर्वविरति है और जिसमें आशिक हो वह देशविरति है। सर्वविरति में पाँच महाव्रत आते है। देशविरति में श्रावक के बारह व्रत आते हैं।
देशविरति के एक भाग में पाप का त्याग होता है और दूसरे भाग मैं पाप की छूट होती है । छूट इसलिए कि, उसके बिना निर्वाह नहीं हो सकता । लेकिन, उस छूट पर अंकुश रखा जाता है, जिसे 'जयना' कहते हैं।
एक गृहस्थ देशव्रती है और उसने श्रावक का स्थूलप्राणातिपात विरमण-नामक प्रथम व्रत ले रक्खा है, तो उसे किसी भी निरपराधी त्रस जीव की सकल्पपूर्वक निरपेक्ष हिंसा न करने की प्रतिना होती है। इस प्रतिज्ञा में अशतः त्याग है और अंशतः छूट है। जहाँ छूट है, वहाँ उसे 'जयना' करनी है। इस प्रतिमा का अर्थ ठीक प्रकार से समझ लेने पर सत्र स्पष्ट हो जायगा।
इस जगत में त्रस और स्थावर दो प्रकार के जीव हैं। गृहस्थ को त्रस जीवों की हिंसा न करने की प्रतिज्ञा रहती है और स्थावर की छूट