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धर्म की आवश्कता शायद ही कभी यह प्रश्न उठता रहा होगा कि 'धर्म की आवश्यकता ही क्या है १' परन्तु, आज तो अच्छे-अच्छे घरों के लड़के ऐसा प्रश्न पूछते हैं !
कल की ही बात है कि, एक सुशिक्षित युवक ने हमसे पूछा-"धर्म न करें तो न चले ?' हमने उत्तर दिया--"भाग्यगाली | अगर विकट जगल में प्रवास करनेवाले को मार्गदर्शक बिना चल सके, व्यापार करनेवाले को द्रव्य बिना चल सके, या औदारिक शरीर को आहार के बिना चल सके: तो निश्चय ही आदमी को धर्म किये बिना चल सकता है।" ___ हमारा यह उत्तर सुनकर वह युवक बोला-"अगर मार्गदर्शक न हो तो जगल मे रास्ता भूल जायें और शेर-भेड़िये के शिकार हो जायें या चोर-लुटेरों द्वारा लूट लिये नाये, पास में द्रव्य न हो तो बाजार में साख न जमे और व्यापार न हो सके; शरीर को आहार न दें तो कमजोर होकर नष्ट हो जाये, परन्तु धर्म न करें तो जीवन में कोई काम रुका नहीं रह सकता। बहुत-से लोग जीवन में कोई धर्म किये बिना भी सुखी होते है और समाज में भी मान-पान पाते हैं।'
जो विचार आज वातावरण में फैल रहे है, उनकी ही प्रतिध्वनि इन दलीलो मे है । 'हॉडी में जो हो सो ही चमचे में आता है ।' हमने कहा-"भाग्यशाली । इतना ही क्यों ? तुम आगे बढकर यह भी कह सकते हो कि, जगत् में पशुओं की सख्या बहुत ज्यादा है । वे धर्म के बिना चला लेते है, तो आदमी क्यो नहीं चला सकता ? या उसमे भी आगे बढकर यह कह सकते हो कि, पृथ्वी में कोडे मकोड़ों की तादाद असख्य है, वे धर्म नहीं करते, तो हम क्यों करें ?"
युवक ने कहा-'कीड़े-मकोड़ो या पशुओं के साथ मनुष्य की बराबरी करना उचित नहीं है।"
हमने कहा-"क्यों उचित नहीं है ? वे भी प्राणी है और तुम भी प्राणी हो । जो प्राण को धारण करे सो प्राणी । एक प्राणी की दूसरे प्राणी के साथ बराबरी हो, इसमे अनुचित क्या है ? '