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चौंतीसवाँ व्याख्यान धर्म की आवश्यकता
महानुभावो। __ तत्त्वज पहले आत्मा का, फिर कर्म का विचार करते है। और, अब धर्म का विचार किया जाता है। पटस्थान की प्ररूपणा देखने से यह बात स्पष्ट हो जायगी । वह इस प्रकार है :
(१) आत्मा है। (२) वह नित्य है। (३) वह कर्म का कर्ता है। (४) वह कर्मफल का भोक्ता है। (५) वह कर्मों को तोड़ने की शक्ति से युक्त है। (६) कर्मों को तोड़ने का उपाय सुधर्म है।
जैसे वर के बगैर बरात नहीं होती; वैसे ही आत्मा की मान्यता के अभाव में कर्म अथवा धर्म की विचारणा नहीं हो सकती। अगर आत्मा न हो तो कर्म कौन बाँधे और उनका फल कौन भोगे ? लकड़ी, लोहा या पत्थर में कर्म बाँधने की या उनके फल भोगने की शक्ति नहीं होती। आत्मा को कर्म का बन्धन है और उसका.फल भोगना पड़ता है, इसीलिए उसके तोड़ने का विचार करना पड़ता है। यदि आत्मा को कर्म का बन्धन न हो, और उन्हें भोगना न पड़ता होता, तो उनके तोड़ने की बात पर विचार करने की आवश्यकता ही न रहती। हम रस्सी से बंधे होते हैं, तभी छूटने पर विचार करना पड़ता है। जो बंधा ही न होगा, वह छूटेगा