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आत्मतत्व-विचार
जिनागम, पढानेवाला त्यागी साधु है और उसे वन्दना करने की बात कही गयी है। यदि उसका अर्थ 'शिक्षक' करें, तो गृहस्थावस्था में रहनेवाले सब शिक्षको को वन्दना करनी होगी। उसका फल क्या होगा ?
धर्म शब्द धृ धातु से बना है । और धृ धातु का अर्थ है- 'धारण करना', 'धारण किये रहना' । उसे लक्ष्य में रखकर हमारे शास्त्रकारों ने कहा है कि 'जो प्राणियों को दुर्गति में गिरने से धारण किये रहे, उसे धर्म कहते हैं ।' यह व्याख्या कितनी स्पष्ट और सुन्दर है— जो विचारणा, मार्ग, विधिविधान, क्रिया या अनुष्ठान प्राणियों को दुर्गति या अधोगति या दुर्दशा में गिरने से रोके, बचाये, उसे धर्म कहते हैं ।
यही नहीं कि, धर्म प्राणी को दुर्गति में जाने से बचाता है, बल्कि सद्गति की ओर ले जाता है । यह बात नीचे के श्लोक में स्पष्ट की गयी है—
दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून, यस्माद् धारयते पुनः । धत्ते चैतान् शुभेस्थाने, तस्माद् धर्मं इति स्मृतः ॥
- दुर्गति की ओर जाते हुए जीवों का उद्धार करके उन्हें पुनः शुभ स्थान पर स्थापित करता है, इसलिए धर्म कहलाता है ।
धर्म का लक्षण
हर वस्तु लक्षण से जानी जाती है । सज्जन, दुर्जन, चतुर,, मूर्ख आदि लक्षण से ही जाने जाते हैं । कोई आदमी शक्ति होते हुए भी उद्यम न करता हो, आत्मश्लाघा करता हो, जुए से धन पाने की आशा रखता हो, शक्ति से ज्यादा काम हाथ में लेता हो, कर्ज लेकर घर बनाता हो, बूढा होकर भी विवाह करता हो तो आप फौरन कहेंगे कि, यह बेवकूफ है । उसी प्रकार जो बिना अवसर बोलता हो, लाभ के समय कलह करता हो, भोजन के समय क्रोध करता हो, कामी लोगों के साथ स्पर्धा करके