________________
५४८
श्रात्मतत्व-विचार
___ 'धर्म माने प्रभु-भक्ति', इस व्याख्या को भी अपूर्ण ही समझना चाहिए । प्रथम तो प्रभु का स्वरूप विभिन्न प्रकार का माना गया है और दूसरे उसकी भक्ति करने की रीतियाँ भी विविध प्रकार की है। इसलिए प्रभु-भक्ति का सच्चा अर्थ लगा सकना भी एक पहेली है । दूसरे, धर्म का अर्थ मात्र प्रभुभक्ति करें तो जान, कर्म (सत्-क्रिया) आदि का समावेश किसमें करें ? प्रभु-भक्ति को धर्म का अंग मानने में अवश्य ही कोई बाधा नहीं है, लेकिन धर्म को प्रभु भक्ति मात्र कहना निश्चत् ही अनुचित है।
'धर्म यानी दान', इस कथन में भी अव्याप्ति-दोष है । यह व्याख्या धर्म के सब अगों को स्पर्श नहीं करती। उदाहरणतः शील,. तप और भाव भी धर्म के अंग हैं। धर्म का अर्थ दान करने पर उनका समावेश कैसे होगा?
'धर्म माने सुविचार', यह व्याख्या भी अव्याप्ति दोष वाली है । अगर कोई आदमी इस व्याख्या के अनुसार केवल अच्छे विचार ही करता बैठा रहे, तो उसका उद्धार कैसे होगा ? सद्विचार के साथ सत्कर्म की भी आवश्यकता है । परन्तु, इस व्याख्या मे उसका समावेश नहीं होता।
'धर्म माने जानोपासना ऐसा अर्थ करने पर तो सब अनुष्ठानो, सब क्रियाओं या विधि-विधानो का निषेध हो जाता है, इसलिए यह भी स्वीकार करने योग्य नहीं है।
'धर्म माने कुलाचार', यह व्याख्या बड़ी संकुचित है और इसम वर्म के नाम पर अधर्म हो जाने की आशंका है। किसी का कुलाचार श्राद्ध के दिन भैंसा मारना हो, तो क्या वह धर्म कहलायेगा ? देवा और जाति के अनुसार कुलाचार अनेक प्रकार का होता है और उसमें पारस्परिक विमद्धता भी होती है। जिसे एक कर सकता है, उसे दूसरा नहीं कर सकता। जैसे किसी के कुलाचार के अनुसार बह की पहली प्रसूति