________________
धर्म का आराधन
५५६ कर्तव्य सब भिन्न है। स्वभाव ही जिसका विरुद्ध हो वह भला क्यों भला लगे ? स्वाट मे भले ही अच्छा हो, पर उसे घोड़े के सामने तो रखें, या शक्कर मीठी होने पर भी यदि उसे गधे के सामने रखें तो क्या होगा ? स्वभाव-विरुद्ध होने से यह उन्हें नहीं रुचता । बधकर्ता को दया की वात अथवा वेश्या को शील की बात भला क्या रुचेगी ?
कर्म स्वभाव से कौरवों के समान हैं । वे कुटिल नीति आजमाते रहते हैं । वे आत्मा को शात नहीं बैठने देते । जब आत्मा धर्म करने जाता है तो वे बाधक होते हैं और धर्म नहीं करने देते। आप व्याख्यान सुनने आते हैं और ऊँघने लग जाते हैं, यह कर्म की करामात है । अथवा, आप किसी गरीब की मदद करना चाहते हैं, पर रुक जाते हैं, यह भी कर्म की करामात है । आपने अर्से से तीर्थयात्रा का विचार कर रखा हो, पर बीबी या बच्चे बीमार पड़ जाते हैं, व्यापार की बड़ी उपाधि के कारण या सगेसम्बन्धियों के किसी काम से रुक जाना पड़ता है, इसमे भी कर्म की कुटिलता ही कारणभूत है।
धर्म सत्ता अति बलवान है, यह वात आपने अब तक अनेक बार सुनी है और उसे सुन-सुनकर हताश, पस्त-हिम्मत, भी हुए हैं, कि ऐसी प्रबल सत्ता के सामने हमारा क्या वश चलेगा ? परन्तु आज जान लीजिए कि, कर्मसत्ता से धर्मसत्ता अधिक बलवान है । जरासध बलवान था, पर कृष्ण उससे अधिक बलवान थे। रावण से लक्ष्मण अधिक बलवान था। तभी तो जरासध कृष्ण के हाथों और रावण लक्ष्मण के हाथों मारा गया ।
धर्मसत्ता अधिक बलवान है, ऐसा जान जाने के बाद आप उसकी प्रतिष्ठा करते है । उगते सूर्य को सभी पूजते हैं, अस्त होते सूर्य को कोई नहीं पूजता । एक बार आप राजाओं के सामने नतमस्तक होते थे, पर अब उसे देखकर सर नहीं झुकाते। इसका कारण यह है कि, आज उनकी सत्ता समाप्त हो चुकी है। आज तो कोई मिनिस्टर