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आत्मतत्व-विचार
आनेवाला हो तो आप विशेष धूम-धाम और मान-सम्मान करते हैं । तथा प्रयत्न करते हैं कि, उसके साथ आपका सम्पर्क बढे । पर, कल जब वह मिनिस्टर कुर्सी छोड़ देता है तो भी क्या आप उसके आगमन पर धूमधाम करेंगे ?
अगर कर्म का वश चले तो एक भी आत्मा को अपनी जकड से मुक्त न होने दे, लेकिन धर्म की शक्ति के सामने वह लाचार हो जाता है । धर्मसत्ता कर्मसत्ता को नष्ट कर देती है और आत्मा को कर्मबन्धन से छुड़ाकर पूर्णरूप से स्वतंत्र कर देती है ।
महानुभावो आपने कर्म की दोस्ती बहुत दिनों की; पर उसका कोई अच्छा परिणाम आपको नहीं मिला। अब धर्म की दोस्ती करके देखिये कि, उसका परिणाम कैसा सुन्दर आता है !
धर्म की मैत्री करने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, सम्यक्त्व की दृढ़ता होती है और विरति के परिणाम जाग्रत होते हैं, जिससे संयम और तप की आराधना सुलभ होती है । सयम की आराधना से कर्म के आगमन पर कड़ा पहरा वैठ जाता है और वह आत्मा मे प्रवेश नहीं कर सकता।
और, तप की आराधना से आत्मा मे घुसे हुए कर्म नष्ट होने लगते हैं । सत्र कमाँ के नष्ट हो जाने पर आपकी आत्मा परमात्मा हो जाती है और उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, नायकसम्यक्त्व तथा अनन्त वीर्य आदि गुण प्रकट हो जाते हैं ।
किसी श्रीमन्त अथवा बड़े अधिकारी से मैत्री करनी होती है तो आप उससे अनेक बार मिलते हैं, बात-चीत करते हैं, उसके साथ बैठकर चाय-पानी पीते हैं। उसके साथ रहने के लिए आप प्रसग उत्पन्न करते हैं और उसका सहवास प्राप्त करते हैं। पर, धर्म की सगत के लिए कोई भी इस प्रकार प्रयास करता नहीं दिखता।
बाल्यकाल में विचारशक्ति विशेष विकसित नहीं होती, इसलिए