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पाहा
" धर्म की पहिचान
बी-८, १३ जाने ४५५ ___ वह ऐसे विचार करता हुआ, अपने साथियों के साथ- कुंशस्थल छोड़कर चला गया। मगर वह करुण दृश्य उसकी नजरों से दूर नहीं हुआ। वह अपने दुष्ट कृत्य की वारंवार निन्दा करने लगा। उसका हृदय पिघलने लगा और आँखों से पश्चात्ताप के आँसू झरने लगे।
__ पश्चात्ताप मे भी अदभुत् शक्ति होती है। वह वज्र हृदय को भी पुण्यकोमल बना देता है । कवि कलापी ने कहा है कि, 'पश्चात्ताप का विपुल झरना स्वर्ग से उतरा है ! पापी उसमें डुबकी लगाकर पुण्यशाली बनते हैं।"
आगे चलकर जगल आया। वहाँ एक तपस्वी ध्यानी मुनि उसकी नजर आये। वह उनके पास गया और उनके चरण पकड़कर फूट फूटकर रोने लगा। मुनिवर ने कहा-"वत्स, शात हो! इतना शोक-सन्ताप क्यों करता है "
दृढपहारी ने कहा-"प्रभो! मै महा अधम, पापी, हत्यारा हूँ। आज अकिंचित कारणवश ब्राह्मण, गाय, स्त्री और बालक की हत्या कर दी। अब मेरा क्या होगा ? हे कृपालु ! मुझे बचाओ, मेरी रक्षा करो!"
मुनिवर ने कहा-"महानुभाव! जो हुआ सो हुआ। अब भविष्य में ऐसी भूल न करने के लिए तैयार हो तो मार्ग निकल सकता है। श्री जिनेश्वर भगवतों ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का उत्तम शील बताया है । तू उसे धारण कर और सब पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जा।" - मुनिवर के इन वचनों से दृढप्रहारी का समाधान हुआ और उसने पंचमहावतों से सुशोभित उत्तम शील धारण किया। अपरिग्रह को तो यहाँ तक धारण किया--"जब तक मुझे ये चार हत्याएँ याद आती रहेंगी, तब तक. भन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा" महानुभावो ! निर्ग्रन्थमु नि तपश्चर्या के लिए अनेक प्रकार के अभिग्रह धारण करते हैं। परन्तु, ऐसा अभिग्रह अत्यन्त उग्र है। किसी चीज की याद दूर करने के लिए कितने उच्चकोटि का