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श्रात्मतत्व-विचार
ध्यान और तप चाहिए ! परन्तु, भावुक सत दृढप्रहारी ने ऐसा उन अभिग्रह धारण किया और कुशस्थल नगर के दरवाजे पर आकर ध्यानमग्न हो गये ।
उस नगर को उनने और उनके साथियों ने बुरी तरह लूटा था, इसलिए लोग उन्हे देखकर मनमानी बातें कहने लगे । कोई उन्हे धूर्त कहता; तो कोई दोंगी । लोगो ने उनपर ईंट-पत्थर धूल की वर्षा तक की । पर, वे अपने दृढ सकल्प से नरा भी विचलित नहीं हुए । जब ईट-पत्थरो का ढेर नाक तक पहुँच गया, तब वे उससे बाहर निकल कर नगर के दूसरे दरवाजे पर ध्यानस्थ हो गये । वहाँ भी लोगों ने उनकी वही हालत थी । लोकसमूह का अर्थ भेड़ियाधसान है । एक के बाद दूसरा वही करता गया । वहाँ भी जब ईट-पत्थरों का ढेर नाक तक आ गया, तो उससे भी निकलकर तीसरे दरवाजे पर आ गये । इस तरह ६ महीने तक उस नगर में घोर तप करते रहे । तत्र उनकी आत्मा की पूर्ण शुद्धि हो गयी और उन्होने अद्वित्तीय केवलज्ञान प्राप्त किया ।
अब लोग समझ गये कि, दृढ़प्रहारी ढोंगी या धूर्त नहीं है, बल्कि एक सच्चे सन्त और महात्मा हो गये हैं । वे उनकी वन्दना करने लगे और उनकी चरणरज मस्तक पर धारण करने लगे ।
धर्म की परीक्षा
महानुभावो । शास्त्रकारों ने उत्तम धर्म के जो तीन लक्षण बताये है । उन्हें सदा ध्यान में रखिये । जब कोई वस्तु धर्म के रूप में आपके सामने पेश हो, तो पहले यह देखिये कि, उसमें अहिंसा का स्थान क्या है ? अगर वह हिंसा का समर्थक नहीं है, तो उसे अपने लिए अनुपयोगी समझिये । प्राणियो को यज्ञ में होमना, देव - देवियों को प्रसन्न करने के लिए प्राणियो की बलि देना, जीव-हिंसा करना, ये सब हिंसा के रूप है । पर, इन्हें धर्म के नाम पर