________________
५४६
आत्मतत्व-विचार
सामने नहीं आता । क्योकि, दुनिया में कर्तव्य या फर्ज के विषय में तरहतरह के विचार फैले हुए है। कोई कहता है कि, प्रजा उत्पन्न करना अपना फर्ज है । जैसे हमारे पिता ने हमे पैदा किया उसी तरह हमे भी सन्ताने पैदा करनी चाहिए। पुत्र उत्पन्न न करेंगे तो वंश कैसे चलेगा ? कोई कहता है कि इस जगत् मे सब चीजें भोगने के लिए पैदा हुई हैं, इसलिए विविध प्रकार के भोग भोगना अपना कर्तव्य है। कोई कहता है कि मद्य, मास, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन का सेवन करने से देव प्रसन्न होता है; इसलिए इन पंच मकार का सेवन करना अपना कर्तव्य है । कोई कहता है कि, देव-देवियाँ पशुबलि-नरबलि से प्रसन्न होते हैं। इसलिए बलि देना अपना कर्तव्य है । कोई कहता है कि, श्रीमतो को लूटकर गरीबों को दान देना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि इसके बगैर दुनिया में समानता नहीं लायी जा सकती।
किसान खेती का काम करे, व्यापारी व्यापार करे, दर्जी कपड़ा सिए, मोची जूते बनावे, कुंभार बासन बनाये, बढई मेज बनाये, लुहार औजार बनावे, चमार मेरे ढोरों को ले जाये, भगी झाडू. मारे, चोर चोरी करे, वेश्या वेश्याचार करे और कसाई जानवरों को मारे-यह उनका कर्तव्य माना जाता है। इस सव को धर्म माना जाये तो पाप-जैसी कोई चीज ही नहीं रहती । करार के मुताविक नौकरी करना फर्ज माना जाता है। फिर वह नौकरी चाहे जिस प्रकार की हो। मिसाल के तौर पर ६ घटे की नोकरी हो तो शिक्षक ६ घंटे तक पढावे, गुमाश्ता ६ घंटे तक नाम लिखे, उघरानी को जाये या सेठ का बताया हुआ दूसरा काम करे । मजदूर हो तो ६ घटे मजदूरी करे । पुलिस हो तो ६ घंटे चौकीदारी करे, चोरों को पकड़ने जाये या गुडों की मार-पीट करे और कारीगर हो तो ६ घंटे कारीगरी का काम करे। किसी ने कसाईखाने में या कलाल के यहाँ नौकरी स्वीकारी हो, तो वहाँ जानवरों को मारना पड़े या लोगों को शराव पिलानी पडे।