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छत्तीसवाँ व्याख्यान धर्म की पहिचान
महानुभावो!
पिछले दो व्याख्यानों में यह स्पष्ट किया गया कि नीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए हर मनुष्य को धर्म अवश्य करना चाहिए । धर्म की शक्ति अगाध, अपरिमित, अचिन्त्य है, लेक्नि धर्म क्या है ? धर्म के लक्षण क्या हैं ? धर्म की पहिचान क्या है ? यह जाने बिना धर्म नहीं हो सकता । इसलिए, इस व्याख्यान में इन विषयों पर प्रकाश डालेंगे।
धर्म क्या है ?..-इस प्रश्न का उत्तर विभिन्न लोग विभिन्न प्रकार से देते हैं । कोई धर्म को सेवा बताता है, कोई उसे कर्तव्य, फर्ज, नीति, सदाचार, प्रभुभक्ति, दान, सुविचार, ज्ञानोपासना, कुलाचार बताता है । कोई उसे शास्त्र मे कथित विधि और निषेध बताता है । परन्तु, ये व्याख्याएँ अपूर्ण हैं; इसलिए धर्म का यथार्थ भाव नहीं दर्शा सकती ।
धर्म का अर्थ सेवा मान लें, तो यह प्रश्न होता है कि सेवा किसकी ? लोग अपना पेट भरने के लिए अनेक लोगों की अनेक प्रकार से सेवा करते हैं, तो क्या वह धर्म है ? कितने ही बीबी-बच्चों की सेवा करते है, क्या उसे धर्म मानेंगे ? कितने ही आदमी समाज-देश-सेवा के नाम पर मेवा उड़ाते हैं और विशुद्ध स्वार्थी प्रवृत्तियों में भी सेवा का रंग भरते हैं । ऐसा भी भ्रम फैला हुआ है कि, सेवा के लिए पाप भी किया जा सकता है । इसलिए 'धर्म माने सेवा' यह व्याख्या स्वीकार्य नहीं है।
धर्म का अर्थ कर्तव्य या फर्ज मानें तो भी धर्म का वास्तविक रूप