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आत्मतत्व-विचार
'वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्ख शतान्यपि' इस कहावत से बात स्पष्ट हो जाती है। ___-'यति' अर्थात् साधु ! यदि वह चरित्रवाला हो, तभी शोभता है । चरित्रहीन साधु की भला कौन वदना करेगा ?
-'भवन' अर्थात् मकान | पर, यहाँ उससे मदिर का तात्पर्य है । यदि उसमें देव हो तभी मदिर की शोभा है।
-और, 'मनुष्य' वह है जिसमें धर्म हो । यदि उसमे धर्म न हो तो उसमे भला क्या शोभा ?
मानवजीवन-धर्म अगर मनुष्य में से धर्म निकाल दिया जाये, तो शेष शून्य रहता है। खाना-पीना, ऐश-आराम करना तो प्राकृत क्रियाएँ है, आव्यात्मिक दृष्टि से उनका कुछ मूल्य नहीं है।
धर्म व्यक्ति का विकास-साधक है। वह समाज को सुव्यवस्थित रखता है, राष्ट्र की उन्नति करता है और विश्व को एक कुटुम्ब मानने की बुद्धि पैदा करता है।
जिस जीव ने भी मोक्ष प्राप्त किया है, धर्म के आराधन से ही प्राप्त किया है। एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो धर्म के विना मोक्ष तक पहुंचा हो । सिद्ध गिला पर अधर्मी व्यक्ति पहुँच ही नहीं सकता, यह बात सनातन सत्य है।
विनय, नम्रता, सरलता, उदारता, गाति, धैर्य, क्षमा, सयम, दया, 'परोपकार, ये सब धर्माराधन के प्रत्यक्ष फल हैं। इनका अनुभव कोई भी आत्मा कर सकती है।
जिस समाज मे धर्म की गहरी भावना होती है, वह काल-सरीखे आक्रमण के सामने भी टिकी रह सकती है और वह प्राय. सुखी होता है। लेकिन, धर्म को छोड़ देनेवाला समाज कुछ ही समय में अंधावुधी में