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धर्म की शक्ति
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इस प्रकार धर्म के कितने ही लाभ हैं; पर उनको प्राप्ति के लिए योग्य धर्माराधन आवश्यक है ।
धन चाहिए या धर्म ?
कुछ लोग कहते हैं कि, "हमें धर्म नहीं धन चाहिए । कारण कि, धन से अन्न, वस्त्र और इजत तीनो उपलब्ध हैं ।" धन से अन्न-वस्त्र मिल जाते हैं, पर प्रतिष्ठ धन मात्र से ही नहीं मिलती । लाखों की हैसियतवालो की भी समान में कोई प्रतिष्ठा नहीं होती; बल्कि समान उन्हें धिक्कारता है; लोग सुबह उठकर उनका नाम तक लेने मे पाप मानते हैं । जिन धनिकों की समाज में प्रतिष्ठा होती है, वे उदारतापूर्वक अपने धन को परोपकार में खर्च करते है । इसलिए, उनकी प्रतिष्ठा का श्रेय धन को नहीं, बल्कि धन खर्च करने के पीछे रहनेवाली धर्मभावना को है ।
यह मान भी लिया जाये कि, धन से अन्न-वस्त्र- प्रतिष्ठा तीनो मिल जाते हैं। पर, स्वय धन धर्म से ही प्राप्त होता है । मात्र मेहनत-मजदूरी से धन मिलता होता, तो समान मेहनत करनेवालो को समान धन प्राप्त होता । पर, ऐसा देखा नहीं जाता । एक आदमी थोड़ी लेता है, दूसरा उचित परिश्रम से उचित धन कड़ा परिश्रम करने पर भी कुछ धन नहीं पाता, करने पर भी नुकसान उठाना पड़ता है । यह फर्क किस कारण है ?
मेहनत से ही बहुत कमा प्राप्त कर लेता है, तीसरा चौथे को अति परिश्रम
अगर जवाब में कहेंगे 'भाग्य' तो भाग्य के भी दो हिस्से करने पड़ेंगे - एक अच्छा भाग्य, दूसरा खराब भाग्य | फिर अच्छे और बुरे भाग्य के कारणो पर भी विचार करना पड़ेगा । जिसने पूर्व भव मे अच्छे कर्म किये, पुण्य किया, धर्म किया, उसे अच्छा भाग्य मिला । और जिसने खराब कर्म किये, पाप किया, अधर्माचरण किया, उसे बुरा भाग्य मिला । इसलिए मूल आधार तो धर्म ही है । हमारे अनुभवी पुरुष कहते हैं
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