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धर्म की शक्ति
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और आवश्यकता भर ही घर ले चलें । जरूरत पड़ने पर फिर ले जायेंगे ।" धर्मबुद्धि सरल था । उसके पेट में किसी तरह का पाप नहीं था । इसलिए उसने पापबुद्धि का कहना मान लिया और दोनों ने अपने धन का अधिकांश पेड़ की जड़ में गाड़ दिया और थोड़ा सा धन लेकर घर आये ।
पापबुद्धि का मन उस धन मे लगा हुआ था, इसलिए रात-दिन उसी का विचार करता था। यह भी शका होती थी कि, कहीं धर्मबुद्धि वहाँ नाकर अकेला ही सारा धन न निकाल ले । पापी को सर्वत्र शका रहती है । अतः एक दिन वह वहाँ जाकर सारा धन निकाल लाया ।
कुछ दिनों बाद, धर्मबुद्धि को धन की आवश्यकता पड़ी, इसलिए वह पापबुद्धि को साथ लेकर धनवाली जगह गया । जमीन खोदी तो कुछ न निकला | यह देखते ही पापबुद्धि पत्थर से सर फोड़ने लगा कि, 'हाय ! हाय ! अब क्या करूँ ? मेरा तो सर्वस्व इसी में था। यह बात सिवाय हम दोनों के कोई नहीं जानता था । इसलिए मालूम होता है तू ही अकेला आकर वह धन निकाल ले गया । तू मेरे भाग का धन दे दे वर्ना मुझे राजदरवार में जाना पड़ेगा ।'
धर्मबुद्धि ने कहा - "अरे दुष्ट ! तू यह क्या बकता है ? मैं चोर नहीं हूँ; पर लगता है कि वह धन तू ही अकेला निकाल ले गया है। इसलिए चुप-चाप मेरा हिस्सा लौटा दे, वर्ना मैं ही तुझे राजदरबार में घसीट ले जाऊँगा ।"
पर, पापबुद्धि यूँ थोड़े ही माननेवाला था ! उल्टा वह धर्मबुद्धि को धमकाने लगा । इस तरह वादविवाद करते हुए दोनों धर्माधिकारी के पास पहुॅचे। दोनों की बात सुनकर धर्माधिकारी ने कहा - " इस विषय मे दिव्य करना पड़ेगा ।' तब पापबुद्धि बोला --- 'यह न्याय ठीक नहीं है । पत्र और साक्षी का अभाव हो तो ही दिव्य करना चाहिए। पर, मेरा तो वृक्ष