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श्रात्मतत्व-विचार
पहले उसके साधक-बाधक प्रमाणों का पूरा विचार करे । परन्तु ऊपर के कथन में ऐसा कोई विचार किया गया नहीं मालूम होता ।
इस जगत् में एक ही प्रकार का धर्म होता और वह साम्प्रदायिकता का जुनून चढाने का काम करता होता तो उपर्युक्त कथन उचित माना जाता; पर इस जगत् में अनेक प्रकार के धर्म है और उनमें से हर एक का स्वरूप अलग-अलग है । इसलिए, सबके प्रति एक सामान्य अभिप्राय प्रकट करना उचित नहीं है । यह तो ' टके सेर भाजी, टके सेर खाजा' वाला न्याय होगा !
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इस जगत् में कितने ही धर्म ऐसे हैं कि जो विश्वमैत्री, विश्वबंधुत्व या विश्ववात्सल्य का उपदेश करते है और सत्र जीवां के साथ मैत्रीपूर्ण, सहानुभूतिपूर्ण, बर्ताव करने का अनुरोध करते है । उन्हें आप साम्प्र ढायिकता का जुनून चढानेवाले कैसे कहेंगे ? अगर वे साम्प्रदायिकता का जुनून चहानेवाले नहीं है, तो अफीम-जैसे कैसे हैं ? और आपसी झगड़े करानेवाले कैसे हैं? अगर गहरा विचार करेंगे, तो देखेंगे कि,. जगत् को जो आजतक थोड़ी-बहुत शांति मिली है, वह धर्म से ही मिली है । धर्म समाज का संघटन तोड़ता नहीं है, बल्कि समाज से सर्वोदय, सर्वकल्याण की तरफ नजर रखने का अनुरोध करता है । अगर, धर्म को गैरजरूरी बताकर मनुष्य-जीवन को धर्मरहित बना दिया जायेगा; तो उस जीवन में कोई सार नहीं रहेगा । मनुष्य का जीवन धर्म से ही शोभित होता है और धर्म से ही विकास पाता है । इस विषय में हमारे महापुरुषों ने कहा है कि
निर्दन्त: करटी हयो गतजवश्चन्द्रो विना शर्वरी, निर्गन्धं कुसुमं सरो गतजलम् छायाविद्दोनस्तरुः । रूप निर्लवणं सुतो गतगुणश्चारित्रहीनो यतिनिर्देवं भवनं न राजति तथा धर्म विना मानवः ॥