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आत्मतत्व-विचार
है कि, हमें 'कर्म' का नाश कर डालना चाहिए। पर, आगे जिस पुरुषार्थ की अपेक्षा है, उसका प्रश्न आने पर हम ठंडे पड़ जाते हैं। इस कारण कर्म की सत्ता अबाधित रह जाती है और हमारी यातनाओं का अन्त नहीं आ पाता ।
एक व्यक्ति का वर्तन आपको नहीं रुचता । वह आपको दुष्ट और अवाछनीय लगता है तो आप उससे कह देते है - " भई ! तुम हमारे घर मे मत आया करो !” यदि इतने पर भी वह घर में आ जाता है तो आप पूछ बैठते है - "तुमने यहाँ क्यों पैर रखा ? यहाॅ से जल्दी-से-जल्दी चले जाओ, नहीं तो ठीक नहीं होगा ।" और, इस पर भी वह न गया तो आप उसे बाँधकर या धक्का देकर बाहर कर देते है । पर, कर्म - सरीखे दुष्ट और अवाछनीय के साथ आपका व्यवहार ऐसा नहीं होता ! इसे आमंत्रित करके आप अपने घर में स्थान देते हैं ! और, सदा पड़ा रहने देते हैं । और, जब बाद में वह अपनी दुष्टता का चमत्कार दिखाता है, तो आप कहते हैं – “अरेरे ! कर्मों ने यह हमारी बड़ी दुर्गंति की !” पर, बाद में इस विचार से क्या होने का ? जब आपने उसे आश्रय देते समय विचार नहीं किया तो अब सोचने से क्या होनेवाला है ?
दुष्ट को आश्रय देने की एक पुरानी कहानी
राजा का विशाल पलंग था । उस पर दूध सी सफेद चादर बिछी थी। इस चादर के एक कोने में एक जूँ रहती थी। वह कोने से निकलती और राजा का खून पीती और अपने स्थान पर जाकर छिप कर बैठ नाती । राजा नित्य मधुर मधुर भोजन करता । अतः उसका रक्त उस जू को बहुत ही अच्छा लगता । और, इस प्रकार वह बड़े सुख से अपना दिन काटती ।
एक बार एक मकड़ा वहाँ आ पहुँचा । और जूँ से बोला - "बहन मुझे अन्यत्र कहीं आश्रय नहीं है । अतः तुम्हारे आश्रय में आया हूँ ।