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धर्म की श्रावश्यकता
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मुनि ने कहा- "जो ठीक लगे सो कर इसनें मुझसे पूछत क्या है ?"
नदिषेण मुनि ने उसे अपने कन्धे पर बिठाया और धीमे-धीमे चलन लगे । निरन्तर तपस्या करने से नदिषेण मुनि का शरीर दुर्बल हो गया था इसलिए वे धीरे-धीरे चलते थे और देख-देखकर कदम रखते थे । लेकिन, उस मुनि को तो परीक्षा ही करनी थी; इसलिए उसने अपना वजन छोरेधीरे बढ़ाना शुरू कर दिया । देव जैसे चाहे जैसा आकार धारण क सकते हैं । वैसे ही धारण किये हुए वजन को भी मनुष्य हठयोग से ऐसी सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं । गरिमालब्धि है, वह इसी प्रकार की है ।
घटा-बढ़ा सकते हैं । अष्ट महासिद्धि मं े
वजन बढने से नटिपेण मुनि काँपने और लड़खड़ाने लगे । उस समा उस मुनि ने कहा - " अरे अधम ! तू यह क्या कर रहा है ? तूने तो मेरे सारे शरीर को हचमचा दिया। सेवा करने का तेरा ढग अच्छा है 1"
वचन बड़े कर्कश थे, पर नदिपेण मुनि क्षुभित नहीं हुए । उन्होंने पूर्ववत् शाति से कहा - "मेरे इस प्रकार चलने से आपको दुःख हुआ हो तो क्षमा करना । अत्र मैं ठीक तरह चलूँगा ।"
और सुनि को
रास्ते में उस मुनि ने कंधे पर टट्टी कर दी । उसकी दुर्गंध अस थी । पर, नदिपेण मुनि अविचलित भाव से चलते रहे किसी तरह की तकलीफ न हो इसका ध्यान रखते रहे। रास्ते में चलतेचलते नदिषेण मुनि सोचने जाते थे कि इन मुनि का रोग मिटाने के लिए क्या उपाय किया जाये ?
वे अपनी वसति पर आये । देव ने अवधिज्ञान से देखा और बा लिया कि, यह मुनि अपनी प्रतिज्ञा में अटल है । इसलिए, अपनी माया समेट ली और विष्ठा और दोनों साधु अदृश्य हो गये, तुरन्त ही वह दे अपना स्वरूप प्रकट करके, मुनि को तीन प्रदक्षिणा देकर, नमस्कारपूर्वक