________________
धर्म की आवश्कता
तात्पर्य यह है कि, मनुष्य को बुद्धि मिली है, तो उसे उसके द्वारा तत्त्व की विचारणा करनी चाहिए । इससे वह सत्य-असत्य और हित-अहित को समझ सकता है और कल्याणमार्ग पर चलने में समर्थ हो सकता है। जो मनुष्य बुद्धि पाकर भी तत्त्व की विचारणा नहीं करते, उनमे और 'पशुओं में वास्तव में कोई अन्तर नहीं है। एक सुभाषित और सुनिये :
येषां न विद्या न तपो न दानं, न चापि शीलं न गुणोन धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता,
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ -~जिन्होंने बुद्धि मिलने पर भी विद्याध्ययन नहीं किया, शील की आराधना नहीं की, कोई अच्छा गुण प्राप्त नहीं किया या धर्म का आचरण नहीं किया, वे इस जगत् में पृथ्वी पर भार-स्वरूप हैं और मनुष्य के रूप में पशुओं की तरह ही अपना जीवन व्यतीत कर रहे है।
युवक ने कहा-"यह बात तो मैं भी मानता हूँ।" हमने कहा-"अगर यह बात मानते हो तो 'मै कहाँ से आया और मेरा कर्तव्य क्या है ? इस पर बराबर विचार करो । मनुष्य यूँ ही इस जगत् में टपक पड़ा । कुछ कहते हैं कि, माता-पिता ने विषयभोग किया, इसलिए हमारा जन्म हो गया। लेकिन, केवल शुक्र और रज के संयोग से जीवन उत्पन्न नहीं हो जाता । यह तो पौद्गलिक क्रिया है। इसलिए माता-पिता का विषयभोग तो निमित्तमात्र है, उपादान कारण
आत्मा के पूर्वजन्म में बाँधे हुए कर्म हैं। ____ आत्मा कर्मवशात् अनादिकाल से ससार में परिभ्रमण कर रहा है, चह अपने कर्मानुसार विभिन्न गतियों और योनियों में उत्पन्न होता है । यह करते हुए उसके पास पुण्य की जब पूँजी इकट्ठी हो जाती है, तब मनुष्य