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धर्म की श्रावश्यकता
५१६ मुनि ने कहा-"जो ठीक लगे सो कर, इसमें मुझसे पूछता क्या है ?"
नदिषेण मुनि ने उसे अपने कन्धे पर बिठाया और धीमे-धीमे चलने लगे। निरन्तर तपस्या करने से नंदिपेण मुनि का गरीर दुर्बल हो गया था, इसलिए वे धीरे-धीरे चलते थे और देख-देखकर कदम रखते थे। लेकिन, उस मुनि को तो परीक्षा ही करनी थी; इसलिए उसने अपना वजन धीरेधोरे बढाना शुरू कर दिया। देव जैसे चाहे जैसा आकार धारण कर सकते हैं। वैसे ही धारण किये हुए वजन को भी घटा-बढ़ा सकते हैं। मनुष्य हठयोग से ऐसी सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अष्ट महासिद्धि में दो गरिमालब्धि है, वह इसी प्रकार की है।
वजन बढ़ने से नदिपेण मुनि काँपने और लडखड़ाने लगे। उस समर उस मुनि ने कहा-"अरे अधम ! तू यह क्या कर रहा है ? तूने तो मेरे सारे शरीर को हचमचा दिया। सेवा करने का तेरा ढग अच्छा है !"
वचन बड़े कर्कश थे, पर नदिपेण मुनि क्षुभित नहीं हुए। उन्होंने पूर्ववत् शाति से कहा-"मेरे इस प्रकार चलने से आपको दुःख हुआ हो तो क्षमा करना । अब मैं ठीक तरह चलूँगा।"
रास्ते में उस मुनि ने कंधे पर टट्टी कर दी। उसकी दुर्गंध असम थी । पर, नदिघेण मुनि अविचलित भाव से चलते रहे और मुनि को किसी तरह की तकलीफ न हो इसका ध्यान रखते रहे। रास्ते में चलतेचलते नदिघेण मुनि सोचने जाते थे कि, इन मुनि का रोग मिटाने के लिए क्या उपाय किया जाये ?
वे अपनी वसति पर आये। देव ने अवधिज्ञान से देखा और जाना लिया कि, यह मुनि अपनी प्रतिभा में अटल है। इसलिए, अपनी माया समेट ली और विष्ठा और दोनों साधु अदृश्य हो गये, तुरन्त ही वह देश अपना स्वरूप प्रकट करके, मुनि को तीन प्रदक्षिणा देकर, नमस्कारपूर्वक