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गुणस्थान राजलोक के स्वरूप का चिंतन करे; त्रस नाली, अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक आदि के स्वरूप का चिंतन करे; और निगोद, तियेच, मनुष्य तथा देवादि के उत्पन्न होने के स्थानों का विचार करके अपनी धर्म-भावना को दृढ़ करे । धर्म-ध्यान के दूसरे भी चार प्रकार बताये हैं : (१) पिंडस्थध्यान, (२) पदस्थ-ध्यान, (३) रूपस्थ-ध्यान और (४) रूपातीत. ध्यान । इन्हें योगशास्त्र से जान लेना चाहिए।
इस गुणस्थान में उत्तम ध्यान के योग से आत्मशुद्धि बड़े वेग से होती जाती है।
(८) निवृत्तिवादरगुणस्थान 'आत्म विकास का सच्चा प्रारम्भ चौये गुणस्थान से होता है। यह बात पहले आपके ध्यान में लायी गयी है। चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व चला जाता है, अर्थात् सम्यक्त्व आ जाता है। पाँचवें गुणस्थान मे अविरति का अमुक भाग कम हो जाता है, इसलिए देश-विरति आ जाती है । छठे गुणस्थान में अविरति पूरी तरह दूर हो जाती है, इसलिए सर्वविरति आ जाती है और सातवें गुणस्थान में प्रमाद का परिहार होता है, इसलिए आत्म-जाग्रति झलमला उठती है।
आठवें गुणस्थान में 'अपूर्व करण' होता है। आत्मा सम्यक्त्व प्राप्त करते समय राग-द्वेप की निविड़ ग्रन्थि का भेदन करता है, उसे भी अपूर्वकरण कहते हैं, पर यह अपूर्वकरण उससे भिन्न है। एक नामवाले दो गहरो के समान इसे भी समझना । ___ इस अपूर्वकरण में मुख्यतः पाँच बातें होती हैं-(१) स्थितिघात, (२) रसघात, (३) गुणश्रेणि, (४) गुणसक्रम और (५) अपूर्व • स्थितिबन्ध । इन पाँच वस्तुओं को जीव ने पहले कभी नहीं किया, इसलिए इन्हें अपूर्वकरण कहा जाता है।