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अात्मतत्व-विचार
है । ध्यान के चार प्रकारों में से आर्त्तव्यान और रौद्रध्यान अशुभ होने के कारण त्याज्य हैं, इसलिए यहाँ ध्यान शब्द से धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही समझना चाहिए । इन दोनों ध्यानों का परिचय गुणस्थानों के प्रसंग में दिया जा चुका है।
(१२) उत्सर्ग या व्युत्सर्ग : उत्सर्ग यानी त्याग; व्युत्सर्ग माने विशेष त्याग । दोनों शब्द यहाँ त्याग के अर्थ में ही समझने चाहिए। युत्सर्ग दो प्रकार का है : द्रव्य व्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग। द्रव्यव्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं-(१) गणव्युत्सर्ग यानी लोकसमूह का त्याग करके एकाकी विचरना । (२) शरीरव्युत्सर्ग यानी शरीर की ममता छोड़ देना । (३) उपाधिव्युत्सर्ग यानी वस्त्र, पात्र आदि उपाधियो की ममता छोड़ देना । (४) भुक्तपान व्युत्सर्ग यानी आहार-पानी का त्याग करना । इमे सथारा कहते हैं । भावव्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं : (१) कपायव्युत्सग यानी कपायों का सम्पूर्ण त्याग करना । (२) संसारव्युत्सर्ग यानी संसार का त्याग करना और (३) कर्मव्युत्सर्ग यानी आठों प्रकार के कर्मों का न्याग करना । इस तप में शरीर-व्युत्सर्ग यानी कायोत्सर्ग की गणना विशेप रूप से होती है। उसमें काया को एक थासन से, वचन को मौन से और मन को ध्यान से काबू में रखना होता है।
कुछ सूचनाएँ तप निर्जरा का मुख्य साधन है, इसलिए उसकी आराधना कर्मनिर्जरा के ही लिए करना चाहिए । तप से कितनी ही मिद्धियाँ मिलती है और लाभ भी होता है, पर इन हेतुओं मे तप नहीं करना चाहिए ।
तप यक्ति के अनुसार करना चाहिए । और धीरे-धीरे आगे बढना चाहिए | जिस तप में आत्मा के परिणाम गिरें और तप की भावना श्री नष्ट होती हो ऐसा शक्ति-वाह्य तप नहीं करना चाहिए। गुरु