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कर्म की निर्जरा
५०७ (८) विनय-अर्थात् शिष्टाचार, अन्तरग भक्ति। विनयी को विद्या, आत्मज्ञान, प्राप्त होता है और उससे वह भवसागर तरता है | विनय पाँच प्रकार का है-(१) ज्ञान-विनय, (२) दर्शन-विनय, (३) चारित्र-विनय, (४) तप-विनय और (५) उपचार विनय । इस पाँच प्रकार के विनय को अभ्यतर तप कहते हैं। . (६) वैयावृत्त्य-धर्म-साधन के लिए अन्न-पान आदि विधिपूर्वक प्राप्त करा देना एव सयम की आराधना करनेवाले ग्लान (रोगी या अशक्त) आदि की सेवाभक्ति करना, वैयावृत्य कहलाता है। वैयावृत्त्य दस प्रकार का है : (१) आचार्य का, (२) उपाध्याय का, (३) स्थविर का, (४) तपस्वी का, (५) ग्लान का, (६) शैक्ष्य ( नवदीक्षित) का, (७) कुल का, (८) गण का, (९) सघ का और (१०) साधर्मिक या समान धर्म पालनेवाले का। वैयावृत्त्य के सम्बन्ध मे नदिपेण का उदाहरण प्रसिद्ध है।
(१०) स्वाध्याय-आत्मा के कल्याणार्थ शास्त्रो का अध्ययन करना स्वाध्याय तप है। स्वाध्याय में मग्न रहनेवाला अपने आत्मा को शुभ अध्यवसायोंवाला बना सकता है, इसलिए उसका समावेश आभ्यातरिक तप में होता है। स्वाध्याय पाँच प्रकार का है :-(१)वांचनयानी शास्त्र के मूल पाठ तथा अर्थ ग्रहण करना । (२) पृच्छना-यानी समझायी हुई बातों को पूछना । (३) परावर्तना-यानी ग्रहण किये हुए पाठों और अर्थों का परावर्तन करना और (५) धर्म-कथा-यानी धर्म का बोध करानेवाली व्याख्यान-वाणी की प्रवृत्ति करना। साधु व्याख्यान देते हैं वह उनके लिये स्वाध्याय-रूप है । जप को स्वाध्याय कहा जाता है। वह मन का निग्रह करता है, इसलिए आभ्यंतरिक तप में शामिल है।
(११) ध्यान-किसी भी विषय पर मन को एकाग्र करना ध्यान