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तेतीसवाँ व्याख्यान कर्म की निर्जरा
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महानुभावो !
इस संसार का सब प्रपंच कर्मों के अधीन हैं। अगर कर्म न हों तो नरकादि चार गतियाँ न हों, स्थूल या सूक्ष्म शरीर न हों; परम्परा न हो और विविध प्रकार के दुःख भी न हो। तो यह सारी बला कटे । इसलिए सुख-शाति के इच्छुकों उन्हें दूर करने की कोशिश करें ।
जाये । कर्म कुछ मनुष्य
जाये। ये कुछ धूल नहीं
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पर, प्रश्न यह है कि, कर्म किस प्रकार दूर हो ? कर्म कुछ ढोर नहीं है कि, लकड़ी मार कर उन्हें दूर भगा दिया नहीं हैं कि, उन्हें बलात् पकड़ कर बैठा दिया हैं, कि झटक देने से उनसे मुक्ति मिले। इनका जन्म पुगलों से है; पर स्वरूप में ये अत्यन्त सूक्ष्म हैं । मानवीय नेत्र उन्हें देख सकने में असमर्थ हैं । यदि अत्यन्त बलिष्ठ सूक्ष्मदर्शी यंत्र लें तो भी कर्म दिखलायी नहीं पडने के | जो वस्तु दिखायी ही न पडे भला उसे कैसे पकड़ा अथवा दूर किया जा सकता है ? यह एक भयकर प्रश्न है। पर, मनुष्य मे इतनी बुद्धि है कि वह अदृश्य वस्तु को भी पकड़ कर दूर कर सकता है । इसे आप एक दृष्टान्त से समझ सकते हैं ।
जन्म-मरण की अगर कर्म जायें
को चाहिए कि
अदृश्य चोर कैसे पकड़ा गया ?
एक चोर के पास अद्भुत अजन था । उसे लगाने से वह अदृश्य हो जाता था । इस तरह रोज अदृश्य होकर वह राजा के महल में चला