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गुणस्थान
अयोगी अर्थात् योगरहित बनते हैं, तब उनकी अवस्थाविशेप को अयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं ।
अयोगकेवली योगनिरोध किस क्रम से करते हैं, यह आपको बताते है । त्रिविध योग बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकार के होते है । उनमें प्रथम चादर काययोग द्वारा बादर मनोयोग का निरोध करते हैं, फिर चादर वचनयोग का निरोध करते है । इस प्रकार तीन प्रकार के बादर योगों में से दो बाटर योगों के चले जाने पर एक बादरकाययोग बाकी रहता है । फिर सूक्ष्मकाययोग से उस बादर काययोग का निरोध करते हैं, सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करते हैं और सूक्ष्म वचन योग का निरोध करते हैं । तब केवल सूक्ष्म काययोग बाकी रह जाता है । तब तीसरा 'सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती' - नामक तीसरे शुक्लध्यान करके उसके द्वारा सूक्ष्म काययोग का भी निरोध करते हैं। उस वक्त जीव के सत्र प्रदेश मेरु शैल - जैसे निष्प्रकप हो जाते हैं । उसे 'शैलेगीकरण' कहते हैं । इस गुणस्थान का काल अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण करने के बराबर है । यहाँ समुच्छिन्न क्रियाऽनिवृत्ति-नामक चौथा शुक्लध्यान होता है । इस ध्यान के अन्त में जीव सकल अघाती कर्मों का क्षय करके अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्व गति से लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला के सिद्धस्थान में पहुँचकर वहाँ स्थिर हो जाता है । उस वक्त उसकी अवगाहना अन्तिम शरीर की अवगाहना से होती है ।
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आत्मा की ऊर्ध्वगति के लिये चार कारण समझने योग्य हैं : पूर्व प्रयोग, असंगत्व, बधच्छेद और गतिपरिणाम । जैसे कुमार के चाक में, हिंडोले में या बाण में पूर्व प्रयोग से गति होती है, उसी प्रकार यहाँ पूर्व प्रयोग से गति होती है। जैसे मिट्टी के लेप के सग पानी में तुंबड़ी की ऊर्ध्वगति होती है, उसी तरह कर्म रूपी लेप जाने से आत्मा को ऊर्ध्वगति होती है । जैसे एरड के बीज का ऊपरी बन्धन हट जाने से
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