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गुणस्थान
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मिलती होगी। इस गुणस्थान को प्राप्त करनेवाला आत्मा वीतरागी कहलाता है और वीतरागी के समान सुखी इस जगत में कोई नहीं है। इस बात को हमने पहले विस्तार से समझाया है।
अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशम, क्षयोपशम या क्षय जीव चौथे गुणस्थान में करता है; अप्रत्याख्यानीय चार कषायो का उपशम अथवा क्षयोपशम पाँचवें गुणस्थान में करता है, प्रत्याख्यानीय कषाय का उपशम अथवा क्षयोपशम अथवा क्षय करने के लिए छठे या सातवें गुणस्थान में अपनी शुद्धि बढाता रहता है, आठवें गुणस्थान में उपशम या क्षपकणि चढ़ता हुआ जीव नौवें गुणस्थान में सज्वलन लोभ के सिवाय बाकी सब कषाय-नोकषाय मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम या क्षय करता है, दसवें सूक्ष्मसपराय गुणस्थान में जीव इस श्रेणि में आगे बढ़कर अन्तिम समय में सज्वलन लोभ का उदय खत्म कर देता है।
उपशमक जीव ग्यारहवें उपशातमोह गुगस्थान से गिरता है, जबकि क्षपक जीव ग्यारहवें गुणस्थान को पारकर बारहवें गुणस्थान मे आता है और शुक्लध्यान के पहले दो ध्यानों को ध्याता है ।
इस गुणस्थान की स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त की है और वह क्षपक जीव को ही होती है । बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में शेष तीन घाती कर्मों का नाश होता है।
(१३) सयोगकेवलीगुणस्थान शुक्लध्यान की दूसरी मजिल पूरी होते ही जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कमाँ का क्षय कर देता है। यानी चार घाती कर्मों का क्षय हो जाता है और उससे केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति हो जाती है और सयोगकेवली-नामक तेरहवें गुणस्थान की प्राप्ति हो जाती है । अब वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चार अघाती कर्मों का क्षय करना बाकी रहता है। इस गुणस्थान पर आत्मा पूर्ण वीतरागता