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आत्मतत्व-विचार
यौवना स्त्री को हाथ मे लड्डुओ का थाल लेकर साधु मुनिराज से विनती करने देवी । वह 'लीजिये, लीजिये कहती है, पर मुनिराज लेते नहीं है। इतना ही नहीं, उसकी ओर आँख उठकार भी नहीं देखते ! इससे इलाचीकुमार की विचारधारा बदल गयी, अध्यवसाय में परिवर्तन हुआ और वह धर्म-व्यान की धारा द्वारा शुक्क ध्यान में प्रविष्ट हुए। फिर शुक्ल ध्यान की दूसरी मजिल पर आ गये और चार घाती कर्मों का क्षय करके केवलजान पा गये। यहाँ नो धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान की प्रवृत्ति हुई, वह एक प्रकार का तप ही है। ___तप का अर्थ उपवास, आयंबिल, एकासन आदि ही नहीं है । तप का अर्थ बहुत विशाल है। उसमे वाह्य और आभ्यातरिक शुद्वि की अनेक क्रियाओं का समावेश हो जाता है । इसीलिए तप के वाह्य और अभ्यंतर दो भेट माने गये हैं। अनगन, ऊनोदरिका, वृत्ति-सक्षेप, रस-त्याग, कायमग और नलीनता ये वाह्य तप के छह भेद हैं; और प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्यान और व्युत्सर्ग ये अभ्यतर तप के ६ भेद है।
इस तरह ध्यान-तप का आश्रय लेकर, इलाचीकुमार ने केवलजान पार किया।
बारह प्रकार का तप
चर्चा आने पर आपको कर्म-निर्जरा के कारणभूत १२ प्रकार के तो हामी परिचय करा दूं।
(१) अनशन-इसमे भोजन का त्याग रहता है । आयंबिल तथा एकाशन में एक से अधिक बार खाने का त्याग रहता है। उपवाम, यायाधर, पागन आदि करने में इन्द्रियाँ शांत रहती है, मलिए बार तिने मदद मिलती है। श्री महावीर प्रभु ने साधना-काल में उपचार कायदा अवमान लिया था। ४५१५ दिन के माधन काल में उगने ४१६. उपवान किये, यानी केवल ३४१ दिन पारणा की थी!