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कर्म की निर्जरा
आत्मशुद्धि का विचार हो तो निर्जरा बहुत होती है। ज्ञानपूर्वक तप करने से कर्मों की जो निर्जरा होती है उसे 'सकाम निर्जरा' कहते है। जीव की प्राथमिक दशा मे अकाम निर्जरा उपयोगी होती है, पर सच्ची प्रगति तो सकाम निर्जरा से ही होती है। सकाम निर्जरा अकाम निर्जरा से अत्यन्त प्रबल है।
प्रश्न-जीव प्रति समय कर्मों की निर्जरा करता रहता है तो अब तक वह समस्त कर्मों का क्षय क्यों न कर सका ?
उत्तर-एक कोठी में से रोज धान्य निकाला जाता रहे, पर ऊपर से उसमे धान्य पड़ता भी जाये, तो क्या वह कोठी कभी खाली होगी ? आत्मा की भी स्थिति तद्रूर ही समझनी चाहिए क्योकि वह प्रति समय निर्जरा करते रहने के साथ ही नये कर्म भी प्रति समय बॉधता रहता है। सकल कर्मों का नाश तो तब हो कि कर्म बंधे कम और खपें ज्यादा । ऐसी स्थिति तप से उत्पन्न होती है, इसीलिए तप को निर्जरा का उपाय माना है। आज तक जिन आत्माओ ने सकल कर्मों की निर्जरा की है, वह तप से ही की है। आज भी जो आत्मा महा विदेहादि क्षेत्रों में सकल कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं, वे तप के द्वारा ही कर रहे हैं और भविष्य भी ऐसो निर्जरा तप के द्वारा ही होती रहेगी।
प्रश्न-इलाचीकुमार ने बाँस पर खेल करते हुए तेरहवें गुणस्थान को स्पर्श किया और केवलज्ञानी हुए, वहाँ तप किस तरह हुआ ?
उत्तर--बहुत से नट इस तरह बाँस पर खेल करते हैं, पर उन सबको केवलज्ञान नहीं होता, बल्कि इलाचीकुमार ने स्वय भी वहाँ उसी तरहे चार बार खेल किया था, पर केवलज्ञान नहीं हुआ था। इसलिए केवलजान के उत्पन्न होने में कोई असाधारण कारण होना चाहिए । वह कारण किस प्रकार उत्पन्न हुआ यह भी देखें । इलाचीकुमार पांचवीं बार खेल करने चढे, तब उनकी दृष्टि निकटस्थ हवेली में गयी । वहाँ. एक नव